सामाजिक समानता और सरकार
आज देश आजाद है और लोक तंत्र है । देश हमारा धर्म निर्पेक्ष् है जाती और लिंग के आधार पर विभेद करना हमारे देश के कानून और संबिधान में दंडनीय है । पर क्या इस आधार पर सरकार को इन वर्गों को अतिरिक्त सुविधाये देना ये कह कर की वर्षो से इनको दबा कर रखा गया है संबिधान और लोकतान्त्रिक कानून की मूल भावना की हत्या जैसा ही है ।
आज देश में आरक्छन का आधार जाती धर्म और लिंग ही है । फीस माफी में भी यही पैमाने है और भी कई सुविधाओ में यही मानक है । पर क्या ऊँची जाती का हर व्यक्ति संपन्न है या दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाये के सब गरीबी में जी रहे है ।
ये तो तत्कालिन सरकार की एक कामचलाऊ तकनीक थी और शायद सोचा होगा की जैसे जैसे लोगो को लाभ मिलेगा वो ईमानदारी से इस का त्याग कर के दूसरे को लेने देंगे ।
पर आजादी के इतने साल बाद भी इस्तिथि वैसी ही है और इसके लिए जिम्मेदार ऊँची जात के लोग नही वल्कि इन वर्गों के ही वो लोग है जिन्होंने सबसे पहले आरक्छन और अन्य सुविधाओ का लाभ लेकर छोड़ा नही वल्कि अपने बच्चों को पीढ़ी दर पीढ़ी देते गए ।
अगर समाज में समनता चाहिए तो पहले सरकार को अपने स्तर पर सबको समान मान कर चलना चाहिए । अगर वो खुद देश की जनता को जाती धर्म और लिंग के आधार पर बाँट कर उनको उस हिसाब से सुविधाये बंटेगी तो ये एक प्रकार के वर्ग संघर्ष के आगमन के द्वार खोल रही है ।
क्योंकि असमानता जो समाज में है उसे कोई केंद्रीय सत्ता नियंत्रित नही कर रही है की उसने बोला की असमानता खत्म तो कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक सब समान हो गए ये एक व्यक्तिगत व्याधौ है । जैसे कई लोग गाये को माँ मानते है और कई लोग काट कर खा जाते है वैसे हो कोई जाती के आधार पर प्रेम और घृणा करता है कोई मनुष्य मात्र से प्रेम करता है ।
परन्तु सरकार एक केंद्रीय सत्ता हा उसके निर्णय समाज के हर व्यक्ति को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रभावित करते है । इसलिए सबसे पहले सरकार को देश के हर नागरिक को समान मान क्र नियम बनाने चाहिए फिर जनता से समनता की उम्मीद करनी चाहिए ।
क्योंकि जैसे सरकार ये तय नही क्र सकती की कौन भारत माता की जय बोलेगा और कौन गाये को पूज्य मानेगा उसी तरह सरकार को ये भी तय करने का अधिकार नही है की में अपने पडोसी से कैसे वर्तआव करू ।
समनता तो सरकारी विभागों में भी नही है । कही कही अधिकारी अपने मातहत से बहुत नरमी से पेश आता हा और कही कही बहुत कठोरता है पर इसके लिए सरकार कोई नियम नही बना सकती क्योंकि ये निर्भर करता है आपसी रिश्तों पर ।
आज देश में आरक्छन का आधार जाती धर्म और लिंग ही है । फीस माफी में भी यही पैमाने है और भी कई सुविधाओ में यही मानक है । पर क्या ऊँची जाती का हर व्यक्ति संपन्न है या दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाये के सब गरीबी में जी रहे है ।
ये तो तत्कालिन सरकार की एक कामचलाऊ तकनीक थी और शायद सोचा होगा की जैसे जैसे लोगो को लाभ मिलेगा वो ईमानदारी से इस का त्याग कर के दूसरे को लेने देंगे ।
अगर समाज में समनता चाहिए तो पहले सरकार को अपने स्तर पर सबको समान मान कर चलना चाहिए । अगर वो खुद देश की जनता को जाती धर्म और लिंग के आधार पर बाँट कर उनको उस हिसाब से सुविधाये बंटेगी तो ये एक प्रकार के वर्ग संघर्ष के आगमन के द्वार खोल रही है ।
क्योंकि असमानता जो समाज में है उसे कोई केंद्रीय सत्ता नियंत्रित नही कर रही है की उसने बोला की असमानता खत्म तो कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक सब समान हो गए ये एक व्यक्तिगत व्याधौ है । जैसे कई लोग गाये को माँ मानते है और कई लोग काट कर खा जाते है वैसे हो कोई जाती के आधार पर प्रेम और घृणा करता है कोई मनुष्य मात्र से प्रेम करता है ।
परन्तु सरकार एक केंद्रीय सत्ता हा उसके निर्णय समाज के हर व्यक्ति को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रभावित करते है । इसलिए सबसे पहले सरकार को देश के हर नागरिक को समान मान क्र नियम बनाने चाहिए फिर जनता से समनता की उम्मीद करनी चाहिए ।
क्योंकि जैसे सरकार ये तय नही क्र सकती की कौन भारत माता की जय बोलेगा और कौन गाये को पूज्य मानेगा उसी तरह सरकार को ये भी तय करने का अधिकार नही है की में अपने पडोसी से कैसे वर्तआव करू ।
समनता तो सरकारी विभागों में भी नही है । कही कही अधिकारी अपने मातहत से बहुत नरमी से पेश आता हा और कही कही बहुत कठोरता है पर इसके लिए सरकार कोई नियम नही बना सकती क्योंकि ये निर्भर करता है आपसी रिश्तों पर ।
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