Official Blog of Ambrish Shrivastava

Wednesday, March 8, 2023

जातियां कैसे बनी और कैसे हुआ जातिगत भेदभाव

 इस भाव प्रधान समस्या को समझने के लिए हम बजाये पीछे से चलकर आगे आने से, वर्तमान समय से अध्ययन करके पीछे की तरफ चलते है, आज भी समाज बंटा हुआ है? क्या नहीं बटा है !

जीहा बटा हुआ है, कोई कबीर वादी है, कोई अम्बेडकरवादी है, कोई बौद्ध वादी है, कोई पेरियार वादी है, कोई बीजेपी का है, कोई कांग्रेस का है, कोई किसी अन्य पार्टी का सदस्य है या फिर किसी अन्य मत को मानने वाला है, जैसे राम रहीम, निरंकारी बाबा, निरमल बाबा, या जय गुरुदेव या फिर और भी कई अन्य। 


अब इन सबके काम और निष्ठा में थोड़ा थोड़ा अंतर् तो होगा ही, साथ ही साथ जो जिस पार्टी या मत को मानने वाला होगा वो उसी मत या पार्टी को मानने वाले के पास बैठना और बात करना ज्यादा पसंद करेगा, क्युकी मन और निष्ठा मिली हुयी है, जबकि किसी दूसरे मत या पार्टी को मानने वालो को या तो हीन दृस्टि से देखेंगे या फिर द्वेष के भाव से। 

अब जो व्यक्ति जिस पार्टी या मत को निष्ठापूर्वक मानेगा वो यही चाहेगा की उसकी अगली पीढ़ी उसके इस मत और निष्ठा को आगे बढ़ाये, तो वो व्यक्ति अपनी निष्ठा और भक्ति विरासत में अपनी आने वाली पीढ़ी को देकर जाता है और साथ ही दे जाता है अन्य मत एवं पार्टी के प्रति घृणा और द्वेष भी विरासत में। 

फिर जैसे जैसे आत्मविस्वास और आत्मिक बल में वृद्धि होती है, लोग मत एवं पार्टी के साथ आत्मीयता का भाव रखने लगते है, और यही उनके जीवन जीने के आत्मविस्वास का आधार बन जाता है और अन्य मत एवं पार्टी उसको सुहाती ही नहीं है, किसी कारण से अन्य मत या पार्टी का व्यक्ति शक्ति संपन्न होकर अपना अधिपत्य स्थापित कर लेता है तो अन्य मताबलम्बिओ को घुटन होने लगती है और एक संघर्ष शुरू हो जाता है। 

क्या स्वतंत्रता है हमको और उनको 

अब यहाँ एक बात जान लेनी बहुत जरुरी है, की आप किसी भी मत या पारटी के प्रति के प्रति निष्ठा बदलने को पूर्ण स्वतंत्र है लेकिन आप नहीं बदलते है क्युकी ये अब आपके जीवन का आधार बन गया है और चुनते समय आपको सुगम लगा होगा, ऐसे ही जब आदिकाल में वर्गों का वर्गीकरण कर्मो के आधार पर हुआ था तब कोई कुछ भी चुन सकता था। 

जैसे आज स्नातक के बाद आप किसी भी नौकरी की तैयारी कर सकते है, लेकिन ये आपके ऊपर है की आप खुद को किस के लाइक समझते है, हो सकता है आप आईएएस का एग्जाम दे और असफल होने पर क्लर्क बने और फिर आईएएस अधिकारी को गालिया देते रहे ये बस एक खन्नस मात्र है और यही कर्म आधारित वर्गीकरण में हुआ था। 

उस समय सभी को अपना अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार जरूर दिया गया होगा, क्युकी सृस्टि के आरम्भ में तो कोई वर्गीकरण रहा नहीं होगा, ये तो समाज को व्यवस्थित करने के लिए बाद में हुआ होगा, फिर उस वर्गीकरण के अंदर जिसने जो काम चुना वही उसकी पहचान बनती गयी और वो खुस भी था लेकिन जब उसके अंदर हीन भावना को भरा गया तब उसे बुरा लगा। 

अब प्रश्न ये है की हीन भावना भरने वाले कौन लोग थे ? उनका उद्देस्य क्या था ?

इनका कोई उद्देस्य न होते हुए उद्देस्य था, सामाजिक संतुलन को अव्यवस्थित करना, क्युकी एक विकृत मानसिकता के लोग किसी भी अवस्था में सब सही होते नहीं देख सकते है, उनको चाहिए की कुछ उठापटक होती ही रहे, अतएव उन्होंने पहले खुद ही कर्मो को करने वालो को उपेक्षित किया जिससे कर्म करने वाले के आत्मसम्मान और आत्मविस्वास हो ठेस पहुंचे और जब दर्द का फोड़ा बन गया तो खुद ही सुई चुभा कर उसे फोड़ दिया और फिर खुद ही मरहम पट्टी करने को पहुंच गए, और बाकि लोग इस समस्या से अनजान इसलिए बने रहे क्युकी उनके मन में कोई द्वेष था ही नहीं। 

तुलनात्मक मूर्खता 

अब धीरे धीरे ये मवाद बाकि कर्म करने वालो में भी पहुंचने लगा, अब लोग बजाये अपना कर्म तल्लीनता से करने के एक तुलनात्मक अध्ययन में जुट गए, की हम ये काम करते है इसलिए कम इज्जत है और वो ये काम करते है इसलिए उनकी इज्जत है, इसलिए अब हम ये काम नहीं वो काम करेंगे, अब प्रश्न ये उठा की फिर ये काम कौन करेगा ? तो विकृत मानसिकता के लोग तो तैयार बैठे ही थे इस मौके की तलाश में, बोले मशीन है ये काम करने को, इस मशीन युग के आने से कोई क्रांति नहीं हुयी वल्कि बेरोजगारी बढ़ी और समाज में एक दूसरे पर निर्भरता खत्म हुयी। 

सामाजिक निर्भरता का अंत दुखद है 

पहले जब कोई काम होता था तो हर वर्ग के व्यक्ति का एक महत्वपूर्ण स्थान होता था और अगर वो थोड़े नाराज होते थे तो उनको मनाया भी जाता था लेकिन मशीनों के आने से उनकी तारजगी को मनाया नहीं गया वल्कि उपेक्षित ही कर दिया गया, परिणाम उनको और ज्यादा बुरा लगा, इस भावनात्मक चोट ने उनसे उनका पारम्परिक काम भी छुड़वा दिया और जिस काम के लिए छोड़ा वो भी उनको मिल नहीं पाया, परनाम हुआ समाज में एक वर्ग संघर्ष का प्रादुर्भाव हुआ 

Monday, February 13, 2023

देश की उन्नति के लिए सत्ता और विपक्ष में क्या होना चाहिए

एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त सत्ता पक्ष के साथ साथ मजबूत और राष्ट्रवादी विपक्ष का होना भी जरुरी है लेकिन वर्तमान का विपक्ष और इसके सड़क छाप नेता वास्तव में करदाताओं का पैसा बर्बाद करने वाले है, हमे सोचना चाहिए क्या सांसद बनने लायक हैं ? अगर हमे लगता है इनका सांसद बनना सही है तो हम वास्तव में लोकतंत्र के लाइक ही नहीं है, हमे लोकतंत्र के कर्तव्य और अधिकार कुछ भी नहीं पता है। 



वर्तमान का लोकतंत्र केवल भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ नफरत का बाजार सजा कर संसद में बैठे हैं और सच मानिये तो इतने गिर चुके है की विरोधी देशो की भाषा बोलने लगे है। 


लेकिन लोकसभा में ही नहीं भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने तार्किक ढंग से जिस तरह संसद के दोनों सदनों में पप्पू व विपक्ष के परखच्चे उड़ाये, केवल उसका बदला लेने के लिये राज्यसभा में विपक्ष के सांसदों ने “सड़क छाप आवारा” लोगों की तरह हुड़दंग मचा कर लगातार नारेबाजी करके एक लोकतान्त्रिक देश के प्रचण्ड बहुमत से चुने हुए प्रधानमंत्री मोदी को बोलने से रोकने की नाकाम कोशिश की। 


विपक्ष सवाल पूछते वक्त तो शान्ती चाहता है पर जवाब सुनने का ना धैर्य है ना शान्ति रख सकता-
वहां पीछे एक नारा बहुत बुलंद आवाज़ में सुनाई दे रहा था - मोदी अडानी भाई भाई, JPC की जांच कराओ,जांच कराओ -
भूल गये कि यही तरीका यदि सत्ता पक्ष अख्तियार कर ले तो क्या कोई विपक्षी बोल पायेगा - ?
सत्ता पक्ष ने शान्तिपूर्वक पप्पू की पप्पूगिरी को सहन किया व सुना - पर...?????
जब से मोदी सत्ता में आये हैं, विपक्ष उनकी वाणी की प्रखरता व सत्य की धार से भय खाता है - लोकसभा और राज्यसभा,दोनों सदनों में हर वर्ष राष्ट्रपति के अभिभाषण के जवाब में मोदी को लगातार बोलने से रोकने की कोशिश की जाती रही है-
और अब तो सभी सीमाएं पार कर दी है विपक्ष ने -
कितने शर्म की बात है कि-
कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे सदन में मौजूद थे और अन्य दलों के नेता भी थे परंतु किसी ने अपने सांसदों की हुडदंग को रोकने की जरूरत नहीं समझी -
दो दिन में मोदी को बोलने से रोक कर विपक्ष ने भाजपा की कम से कम 20 से 25 सीट 2024 लोकसभा चुनाव में बढ़ा दी हैं -
लेकिन बाद में पछताने से क्या होगा -
मुझे नहीं पता संसद के नियम क्या कहते हैं-

परंतु ऐसे हुड़दंगी सांसदों पर कैमरा लगातार Focus होना चाहिये- जिससे जनता को इन बेलगाम नेताओं का सच पता चल सके कि- यह लोग किस तरह छुट्टे बैल की तरह बर्ताव करते हैं तो यह सांसद बनने के लायक हैं ही नहीं - वैसे भी पिछले दरवाजे से घुसने वाले लोगों की वजह से राज्यसभा का तो औचित्य ही समाप्त ही हो चुका है- अब जिसके सदस्यों की संख्या एक तिहाई ही रह जानी चाहिये यदि राज्यसभा को जारी रखना है तो -
यह मोदी अडानी भाई भाई का नारा किसके इशारों पर लग रहा है - ?
क्या राहुल हिंडनबर्ग भाई भाई नहीं है-?
क्या राहुल दाऊद भाई भाई नहीं हैं-?
क्या राहुल जिनपिंग भाई भाई नहीं है-?
और क्या राहुल बीबीसी भाई भाई नहीं हैं -?
क्या राहुल व तमाम देश विरोधी भाई भाई नहीं हैं -
विपक्ष सोचता है कि वह अडानी पर हमला कर उसकी जड़ें कमजोर कर सकता हैं -
तो भारी भूल कर रहा है विपक्ष - क्योंकि यदि अडानी अंबानी और अन्य उद्योगपतियों ने कांग्रेस, कम्युनिस्ट और ममता के राज्यों में निवेश से हाथ खींच लिया तो इनकी क्या हालत होगी, इसकी कल्पना यह लोग नहीं कर सकते -
अडानी के बाद अगला नंबर अब अंबानी का लगाया जायेगा जिसकी तैय्यारी भी की जा चुकी होगी -
हर तरह का झूठ फैला कर मोदी के प्रति नफरत की आग उगलने में लगे हो -परंतु तुम लोगों के पास उसकी न किसी बात का जवाब है और न किसी योजना में कमी निकाल सकते हो -
दो दिन में मोदी ने तुम्हारे “चीथड़े” उड़ा दिये और यह भी सीधे शब्दों में कह दिया कि वह अकेला तुम सब पर भारी है -
कांग्रेस के पास मोदी की बात का कोई जवाब है क्या-?
कि नेहरू यदि इतने महान थे तो उनके वंशज “नेहरू सरनेम” अपनाने में काहे को शरमाते हैं -
यह कैसा खानदान है “नेहरू” का जिसकी बेटी भी गांधी और विदेशी औरत आती है तो वह भी गांधी बन जाती है और उसके बच्चे जो वाड्रा होने चाहिये, वह भी गांधी हो रहे हैं -
क्या अजूबा है यह नेहरू खानदान -
लोकतंत्र पर सबसे ज्यादा हमला कांग्रेस ने 90 बार 356 का दुरुपयोग करके किया जिसमें अकेली इंदिरा गांधी ने 50 बार चुनी हुई सरकारों को गिराया गया था -
नरेंद्र मोदी एक ऐसा वह “अनार” है- जिसने विपक्ष के सारे नेता “बीमार” कर दिये - विपक्ष के नेता सुधर नहीं सकते और मोदी का वह कुछ बिगाड़ नहीं सकते - इसलिये-
“तीसरी बार, फिर मोदी सरकार”

Saturday, February 11, 2023

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी सकल ताडना के अधिकारी

 ढोल गँवार सूद्र पशु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी।।



गोस्वामी तुलसीदास जी की इस चौपाई में दोष निकालने वाले अवश्य पढ़ें।

***

ढोल-:

काठ की खोल तामें मढ़ो जात मृत चाम। 

      रसरी सो फाँस वा में मुँदरी अरझाबत हैं।

मुँदरी अरझाय तीन गाँठ देत रसरी में।

   चतुर सुजान वा को खैंच के चढ़ाबत हैं।

खैंच के चढ़ाय मधुर थाप देत मंद मंद।

    सप्तक सो साधि-साधि सुर सो मिलाबत हैं।

याही विधि ताड़त गुनी बाजगीर ढोलन को।

     माधव सुमधुर ताल सुर सो बजाबत हैं।।


गँवार-:

मूढ़ मंदमति गुनरहित,अजसी चोर लबार। 

मिथ्यावादी दंभरत, माधव निपट गँवार।।

इन कहुँ समुझाउब कठिन,सहज सुनत नहिं कान।

जा विधि समुझैं ताहि विधि,ताड़त चतुर सुजान।।


शूद्र-:

भोजन अभक्ष खात पियत अपेय सदा।

    दुष्ट दुराचारी जे साधुन्ह सताबत हैं।

मानत नहिं मातु-पितु भगिनी अरु पुत्रवधू।

    कामरत लोभी नीच नारकी कहाबत हैं।

सोइ नर सूद्रन्ह महुँ गने जात हैं माधव।

   जिनके अस आचरन यह वेद सब बताबत हैं।

इनकहुँ सुधारिबे को सबै विधि ताड़त  चतुर।

    नाहक में मूढ़ दोष मानस को लगाबत हैं।।


पशु-:

नहिं विद्या नहिं शील गुन,नहिं तप दया न दान।

ज्ञान धर्म नहिं जासु उर,सो नर पशुवत जान।।

सींग पूँछ नख दंत दृढ़, अति अचेत पशु जान।

तिन कहुँ निज वश करन हित,ताड़त चतुर सुजान।।


नारी-:

नारि सरल चित अति सहज,अति दयालु सुकुमारि। 

निज स्वभाव बस भ्रमति हैं,माधव शुद्ध विचारि।।

माधव नारि सुसकल विधि,सेवत चतुर सुजान।

ताड़िय सेइय आपनो, जो चाहत कल्यान।।



अकबर के नव रत्नों में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना "रहीम" ने भी कहा है:

उरग तुरंग नारी नृपति, नीच जाति हथियार।

 रहिमन इन्हें संभालिए, पलटत लगै न बार॥ 

उसे कोई नहीं बोलेगा जिसने एकदम स्पष्ट बोला की पलट कर वार करते 

अतः यह सुनिश्चित है कि यह सब ताड़ना के ही योग्य है। ताड़ना न दिए जाने पर यह उटपटांग हरकतें करने से नहीं चूकते।

Wednesday, September 21, 2022

दलित अत्याचार की कहानी की सच्चाई

वर्तमान समय में जब हम कक्षा ५ पास करते है तो हम स्वतंत्र होते है नवोदय में जाने को, सैनिक स्कूल में जाने को स्वतंत्र है लेकिन स्वतंत्रता के साथ साथ आपके अंदर इनके द्वारा आयोजित परीक्षा पास करने की लगन और मेहनत भी होनी चाहिए, अब आप क्लास ८ में आगये तो फिर से इनके द्वार एकबार फिर खुलते है और फिर वही बात की इनकी प्रवेश परीक्षा आप पास कर पाते है या नहीं ये आपके ऊपर निर्भर है। 



अब आप क्लास १० में आगये अब आपके सामने NDA, पॉलिटेक्निक जैसे द्वार खुल गए, लेकिन मामला फिर भी वही है की क्या आप प्रवेश परीक्षा पास कर लेते है, इन सबके बराबरी में वो लोग भी है जो एक ही स्कूल में चुपचाप बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के पढ़ते आ रहे है और पास हो रहे है, अब वो चाहे सरकारी स्कूल में हो या फिर प्राइवेट में, उनकी एक अलग केटेगरी साथ के साथ बन रही है। 

अब आप आगये १२थ में, तो आपके लिए इंजीनियरिंग के द्वार खुले जिसमे IIT भी है और अन्य कॉलेज भी है यूनिवर्सिटी भी है, और कुछ सरकारी नौकरिया भी है, लेकिन मामला वही है की आप खुद कितनी मेहनत करने को तैयार है, क्युकी फॉर्म सभी भर सकते है लेकिन पास कौन करेगा ? जो बाकिओ से ज्यादा मेहनत करेगा जिसके लिए आपको शायद शारीरक सुख छोड़ना पड़े। 

अब आपने स्नांतक कर लिया आपके लिए CDS, अखिल भारतीय सेवा, राज्य सेवा, क्लर्क, कानिस्टेबल, शिक्षक जैसे कई पदों के लिए परीक्षाएं है, जिनमे आप जा सकते है, ये सब मेने एक ओवरव्यू दिया है आपको समझाने में की आप शुरू से अंत तक स्वतंत्र है अपनी मेहनत करने की लग्न और क्षमता के आधार पर। 

अब हुआ ये की बचपन में एक ही स्कूल में पढ़ने वाले लोगो में कुछ आईएएस बन गए, कुछ IIT से इंजीनियर बने, कुछ MBBS डॉक्टर बने, कुछ प्राइवेट कॉलेज से इंजीनियर बने, कुछ BMAS बने, कुछ PCS बने, कुछ इंस्पेकटर बने, कुछ कानिस्टेबल बने, कुछ शिक्षक बने, कुछ सेना में अधिकारी बने, कुछ सैनिक बने यानि की जो भी बना अपनी लगन, मेहनत और क्षमता के उपयोग के आधार पर बना। 

अब जो क्लर्क है उसको सबसे ज्यादा काम करना पड़ता है, जो सैनिक है उसको भी बहुत से काम करने पडटे है, जो लोकल कॉलेज से इंजीनियर बने है उनको भी ज्यादा काम करना पड़ता है, जो भी जो बना उसे उसी हिसाब से काम करना पड़ता है, सेलेरी मिलती है और सम्मान मिलता है, और हर विभाग या मंत्रालय में जाने की अनुमति नहीं है । 

अब जो आईएएस बने, IIT से इंजीनियर बने, PCS बने, या MMBS डॉक्टर बन कर सर्जन बने उनके पास काम भले ही कम को लेकिन जिम्मेदारी बहुत है जो दिखती नहीं, उनकी सेलरी ज्यादा है जो दिखती है, उनका सम्मान ज्यादा है जो दीखता है, उनको किसी भी विभाग या मंत्रालय में जाने की छूट है जो दिखती है। 

अब जो वर्ग हमने ऊपर बताया था वो इनसे द्वेष करता है, घृणा करता है, कहता है काम हम करे और राज करे, हमारी सेलरी भी कम है, सम्मान भी कम है, हम आते है तो कोई सम्मान नहीं देता और इनके आने पर सब खड़े हो जाते है, ये भेदभाव है, हम भी सरकारी कर्मचारी है हमे भी उतना ही सम्मान और पगार मिलनी चाहिए जितनी इनकी है।  

अब आप बताओ की क्या इनकी ये मांगे सही है ? अगर आप सिर्फ लास्ट की सीन देखेंगे तो हो सकता है आपको इनकी मांगे सही लगेगी लेकिन अगर आप इनकी मेहनत, लगन, परिश्रम का सही से आँकलन करके मूल्यांकन करेंगे तो आप पाएंगे की इन्होने खुद से चुनाव किया था जब चुनने का समय था, शुरू में मेहनत करने का समय था तब आपने कम मेहनत वाली राह चुनी तो अब क्यों रो रहे हो। 

यही समस्या हमारे समाज की है, अगर आप सृस्टि के आरम्भ में जाए तो किसी भी दर्शन के अनुसार सबसे पहले स्त्री और पुरुष भगवान ने बनाये थे और उस समय कोई छोटा या बड़ा आधिकारिक रूप  से नहीं था, लोगो  जंगलो शुरू किया, पत्तो से वस्त्र बनाये, पशुपालन किया, खेती की फिर  धीरे धीरे काम का बंटवारा हुआ होगा और उस समय काम चुनने की स्वतंत्रता जरूर रही होगी, जिसने जो चुना उसी पर चलता चला गया क्युकी वो उसमे सिध्दहस्त था, फिर परम्परागत रूप से उसने अपने बच्चो को सिखाया। 

और उस समय इतनी कड़ाई भी नहीं होगी की आप अपना काम न बदल सको, आपके अंदर क्षमता है तो बदल सकते होंगे, क्युकी उस समय कोई लिखित प्रमाण पत्र नहीं बनते थे, हां ये हो सकता है काम बदलने पर कुछ लोग सलाह देते होंगे कुछ ताना मारते होंगे, तो ये वही करते होंगे जिनके साथ आपने किया होगा, जो डोगे वही बापस मिलेगा। 

कालांतर में जैसे जैसे समय आगे बढ़ा लोगो को काम की अहमियत समझ होगी की ये काम बहुत जरुरी है ये कम जरुरी उसी के अनुसार सम्मान मिलने लगा होगा बस यही आगे चलता रहा और जब अंग्रेज आये तो इन सबको बढ़ा चढ़ा कर समाज में विद्वेष की भावना का बीज बोया जो स्वतत्रता के बाद आरक्षण के रूप में परिणित हुआ फिर कुछ एक्ट बने जिनका आज दुरूपयोग हो रहा है। 

साथ ही इस वर्ग विशेष के दिमाग में ये भर दिया गया है की तुम्हारे साथ अत्याचार हुआ है, और तुम्हारे आगे बढ़ने का कारण तुम्हारी कम मेहनत  हरामखोरी नहीं थी वल्कि सवर्ण वर्ग अत्याचार था, अब समाज दो से ज्यादा समाजो का बोझ धो रहा है जो धीरे धीरे वर्ग संघर्ष में परिणित होगा.     

आज ये वर्ग इतना शक्तिशाली है की संविधान में वर्णित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा पर रोक लगा सकता है और लगवा भी सकता है, इसके सामने संविधान के आर्टिकल २०, २१ २२ का कोई महत्त्व नहीं है, अगर कोई फिल्म बनाने की कोशिश करे जिसमे आरक्षण या दलित एक्ट का दूसरा पहलू दिखाने की कोशिश की जाए तो पूरा देश जलाने पर उतारू हो जायेगे, मजबूरन सरकार और कोर्ट उन फिल्मो और धारावाहिको पर रोक लगा देते है।  

Thursday, September 15, 2022

भारतीय इतिहास के साथ मजाक करने वाले इतिहासकार

 आदरणीय इरफान हबीब साहब और रोमिला थापर मैम


सादर प्रणाम। मैं साइंस का विद्यार्थी रहा हूँ। मगर बहुत बचपन से ही मेरी दिलचस्पी इतिहास में थी। लेकिन सबसे पास के कॉलेज में इतिहास में एमए की व्यवस्था ही नहीं थी और मैं पढ़ाई के लिए बाहर जा नहीं सकता था, इसलिए गणित में एमएससी करके एक साल काॅलेज में पढ़ाया। फिर लिखने के शौक की वजह से मीडिया में आ गया।



करीब पच्चीस बरस प्रिंट और टीवी में काम किया। इस दरम्यान पाँच साल तक लगातार आठ दफा भारत भर के कोने-कोने में घूमनेे का भी मौका मिला। इन पच्चीस-तीस सालों में इतिहास ने मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ा। स्कूल से कॉलेज तक की अपनी पूरी पढ़ाई में जितनी किताबें नहीं पढ़ी होंगी, उतनी अकेले इतिहास की किताबें पढ़ी होंगी। खासतौर से भारत का मध्यकालीन इतिहास। भारत के ‘मध्यकाल’ से आप जैसे विद्वानों का आशय जो भी हो, मेरी मुराद लाहौर-दिल्ली पर तुर्कों के कब्ज़े के बाद से शुरू हुए भयावह दौर की है। 


मुझे अच्छी तरह याद है कि तीस साल पहले गणित की डिग्री लेते हुए जब इतिहास की किताबों में ताकाझाँकी शुरू की थी, तब इरफान हबीब और रोमिला थापर के नाम बहुत इज़्ज़त से ही सुने और माने थे। हमने आपको इतिहास लेखन में बहुत ऊँचे दर्जे पर देखा था।


हम नहीं जानते थे कि इतिहास जैसे सच्चे और महसूस किए जाने वाले विषय में भी कोई मिलावट की गुंजाइश हो सकती है। हम सोच भी नहीं सकते थे कि इतिहास में कोई अपनी मनमर्ज़ी कैसे डाल सकता है।


मैं बरसों तक वही पढ़ता रहा, जो आज़ादी के बाद आप जैसे मनीषियों ने स्थापित किया। सल्तनत काल और फिर मुगल काल के शानदार और बहुत विस्तार से दर्ज एक के बाद एक अध्याय। सल्तनत काल के सुल्तानों की बाज़ार नीतियाँ, विदेश नीतियाँ और फिर भारत के निर्माण में मुग़ल काल के बादशाहों के महान योगदान और सब तरह की कलाओं में उनकी दिलचस्पियाँ वगैरह। वह कथानक बहुत ही रूमानी था।


वह इन सात सौ सालों के इतिहास की एक शानदार पैकेजिंग करता था। उसी पैकेजिंग से हिंदी सिनेमा के कल्पनाशील महापुरुषों ने बड़े परदे पर ‘मुगले-आजम’ और ‘जोधा-अकबर’ के कारनामे रचे। 


चूँकि मुझे इतिहास में एमए की डिग्री नहीं लेनी थी और न ही पीएचडी करके किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी की नौकरी की तमन्ना या जरूरत थी इसलिए मैं एक आज़ाद ख़्याल मुसाफिर की तरह इतिहास में सदियों तक भटका और कई ऐसे लोगों से अलग-अलग सदियों जाकर मिला, जो अपने समय का सच खुद लिख रहे थे।



इस भटकन में एक सिरे को पकड़कर दूसरे सिरे तक गया। एक के बाद दूसरे कोने तक गया। एक सूत्र से दूसरे सूत्र तक गया। मीडिया में बीते ढाई दशक के दौरान कोई साल ऐसा नहीं बीता होगा जब मैं किसी न किसी ब्यौरे को पढ़ते हुए ऐसे ही एक से दूसरे सूत्रों तक नहीं पहुँचा होऊँ। उस खोजी तरीके ने मेरे दिमाग की खिड़कियाँ खोलीं। रोशनदान फड़फड़ाए। दरवाज़े हिल गए। एक अलग ही तरह का मध्यकाल मेरे सामने अपनी सारी सच्चाई के साथ उजागर हुआ। 


ऐसा होना तब शुरू हुआ जब मैंने समकालीन इतिहास के मूल स्त्रोतों तक अपनी सीधी पहुँच बनाई। यह काम उसी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के जरिए हुआ, जहाँ आप इतिहास के एक प्रतिष्ठित आचार्य रहे हैं। मैंने आज़ादी के बाद की लिखी गई इतिहास की किताबों को अपनी लाइब्रेरी की एक अल्मारी में रखा और सीधे मुखातिब हुआ मध्यकाल के मूल लेखकों से।


कुछ के नाम इस प्रकार हैं, गलत हों तो दुरुस्त कीजिएगा, कम हों तो जोड़िएगा-फखरे मुदब्बिर, मिनहाजुद्दीन सिराजुद्दीन जूजजानी, जियाउद्दीन बरनी, सद्रे निजामी, अमीर खुसरो, एसामी, इब्नबतूता, निजामुद्दीन अहमद, फिरिश्ता, मुहम्मद बिहामत खानी, शेख रिजकुल्लाह मुश्ताकी, अल हाजुद्दबीर, सिकंदर बिन मंझू, मीर मुहम्मद मासूम, गुलाम हुसैन सलीम, अहमद यादगार, मुहम्मद कबीर, याहया, ख्वंद मीर, मिर्जा हैदर, मीर अलाउद्दौला, गुलबदन बेगम, जौहर आफताबची, बायजीद ब्यात, शेख अबुल फजल, बाबर और जहाँगीर वगैरह। ज़ाहिर है इनके अलावा और भी कई हैं, जिन्होंने बहादुर शाह ज़फर तक की आँखों देखी लिखी।


इतिहास हमारे यहाँ एक उबाऊ विषय माना जाता रहा है। आम लोगों की कोई रुचि नहीं रही यह पढ़ने में कि बाबर का बेटा हुमायूँ, हुमायूँ का बेटा अकबर, उसका बेटा सलीम, उसका बेटा खुर्रम और उसका बेटा औरंगज़ेब। इसे पढ़ने से मिलना क्या है? गाँव-गाँव में बिखरी और बर्बाद हो रही ऐतिहासिक विरासत के प्रति आम लोगों का नज़रिया बहुत ही बेफिक्री का रहा है। उन्हें कोई परवाह ही नहीं कि ये सब कब और किसने बनाए और कब? और किसने बर्बाद किए, क्यों बर्बाद किए?


गाँव-गाँव में बर्बादी की निशानियाँ टूटे-फूटे बुतखानों और बर्बाद बुतों की शक्ल में मौजूद हैं। मैं जिस शहर के कॉलेज में पढ़ता था, वहाँ नौ सौ साल पहले परमार राजाओं ने एक शानदार मंदिर बनाया था, जिसे बाद के दौर में बहुत बुरी तरह तोड़कर बरबाद किया गया और एक मस्जिदनुमा ढाँचा उस पर खड़ा किया। डेढ़ लाख आबादी के उस शहर में ज़्यादातर बाशिंदे नहीं जानते कि वह सबसे पहले किसने तोड़ा था, कौन लूटकर ले गया था, किसने उसके मलबे से इबादतगाह बनाई?


अलबत्ता प्राचीन बुतखानों की बरबादी को एकमुश्त सबसे बदनाम मुगल औरंगज़ेब के खाते में एकमुश्त डाला जाता रहा है। वहाँ भी पुरातत्व वालों के एक साइन बोर्ड पर आलमगीरी मस्जिद ही लिखा है, जो एक पुराने मंदिर को तोड़कर बनाई गई। वह बरबाद स्मारक उस शहर के एक ज़ख्म की तरह आज भी खड़ा है, जहाँ बहुत कम लोग ही आते हैं। किसी को कोई मतलब नहीं है।


जब मैं समकालीन लेखकों के दस्तावेजी ब्यौरों में गया तो पता चला कि मिनहाजुद्दीन सिराज ने उस मंदिर की ऊँचाई 105 गज ऊँची बताई है, जिसे शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने 1235 के भीषण हमले में तोड़कर बरबाद किया। लेकिन मुझे यह जानकर हैरत हुई कि इतिहास विभाग में नौकरी करने वाले कई प्रोफेसरों को भी इसके बारे में कुछ खास इल्म था नहीं।



जब किसी विषय के प्रति किसी भी देश के अवाम में ऐसी उदासीनता और बेफिक्री होती है तो मिलावट और मनमर्ज़ी उन लोगों के लिए बहुत आसान हो जाती है, जो एक खास नजरिए से अतीत की सच्चाइयों को पेश करना चाहते हैं। उस पर अगर सरकारें भी ऐसा ही चाहने लगें तो यकीनन यह अल्लाह की ही मर्ज़ी मानिए। 


मैं अपने मूल विषय पर आता हूँ। बरसों तक इतिहास को एक खास पैटर्न पर पढ़ते हुए हमने अलाउद्दीन खिलजी की बाजार नीतियों को इस अंदाज़ में पढ़ा जैसे कि दिल्ली के किले में बैठकर हुए फैसलों से भारत का शेयर मार्केट आसमान छूने लगा था और विदेशी निवेश में अचानक उछाल आ गया था, जिसने भारत के विकास के सदियों से बंद दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिए थे।


जावेद अख़्तर जैसे फिल्मकार भी ऐसे ही इतिहास के हवाले से खिलजी की बाजार नीतियों के जबर्दस्त मुरीद देखे गए हैं। इतिहास की उन किताबों को पढ़कर कोई भी सुल्तानों और बादशाहों का दीवाना हो जाएगा। जबकि खिलजी के समय अपनी आँखों से सब कुछ देखने वाले लेखकों ने जो बताया है, वह असल इतिहास पूरी तरह गायब है और आपसे बेहतर कौन जानता है कि वह कितना भयावह है। 


मसलन बाज़ार नीतियों के कसीदों में दिल्ली में सजे गुलामों के बाजार का कोई ज़िक्र तक नहीं है, जहाँ दस-बीस तनके में वे लड़कियाँ ग़ुलाम बनाकर बेची गईं, जो खिलजी की लुटेरी फौजें लूट के माल में हर तरफ से ढो-ढोकर लाई जा रही थीं। जियाउद्दीन बरनी ने गुलामों की मंडी के ब्यौरे दिए हैं और ऐसा हो नहीं सकता कि आपकी आँखों के सामने से वह मंजर गुजरा न हो। इसी तरह मोहम्मद बिन तुगलक की नीतियों पर ऐसे चर्चा की गई, जैसे बाकायदा कोई नीति निर्माण जैसी संस्थागत व्यवस्थाएँ आज की तरह संवैधानिक तौर पर काम कर रही थीं। जबकि उस दौर में अपने आसपास तमाम तरह के मसखरों और लुटेरों से घिरे तथाकथित सुलतानों की सनक ही इंसाफ थी।


तुगलक की महान नीतियों के कसीदों में ईद के वे रौनकदार जलसे गायब कर दिए गए, जिनमें इब्नबतूता ने बड़े विस्तार से उन जलसों में नाचने के लिए पेश की गई लड़कियों से मिलवाया है। वे लड़कियाँ और कोई नहीं, हारे हुए हिंदू राज्यों के राजाओं की बेटियाँ थीं, जिन्हें ईद के जलसे में ही तुगलक अपने अमीरों और रिश्तेदारों में बाँट देता था। लुटेरों की उन महफिलों में तमाम आलिम और सूफी भी सरेआम नज़र आते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि ये गिरोह आपकी निगाहों में आने से रह गए?


मैं अक्सर सोचता हूँ कि सदियों तक सजे रहे उन गुलामों के बाज़ार में बिकी हजारों-लाखों बेबस बच्चियाँ और औरतें कहाँ गई होंगी? वे जिन्हें भी बेची गई होंगी, उनकी भी औलादें हुई होंगी? आज उनकी औलादें और उनकी भी औलादों की औलादें सदियों बाद कहाँ और किस शक्ल में पहचानी जाएँ?


जब मैं यह सोचता हूँ तो आज के आजम-आजमी, जिलानी-गिलानी, इमरान-कामरान, राहत-फरहत, सलीम-जावेद, आमिर-साहिर, माहरुख-शाहरुख, औवेसी-बुखारी, जुल्फिकार-इफ्तखार, तसलीमा-तहमीना, शेरवानी-किरमानी जैसे अनगिनत चेहरे आँखों के सामने घूमने लगते हैं।


बांग्लादेश के इस छोर से लेकर अफगानिस्तान के उस छोर तक इस हरी-भरी आबादी के बेतहाशा फैलाव में नजर आने वाला हरेक चेहरा और तब मुझे लगता है कि मातृपक्ष (Mother’s side) से धर्मांतरण का व्याकरण कितना जटिल और अपमानजनक है, जो हमारी अपनी याददाश्तों से गुमशुदा किए बैठे हैं और यह सब नजरअंदाज़ कर हम मुगलों को राष्ट्र निर्माता बताकर प्रसन्न हैं। यह कैसी कयामत है कि कोई खुद को गाली देकर खुश होता रहे! 


ऐसे दो-चार नहीं सैकड़ों रुला देने वाले विवरण हैं, जो इतिहास पर लिखी हुई किताबों में पूरी तरह गायब हैं। इन पर लंबी बहस हो सकती है। कई किताबें लिखी जा सकती हैं। खुद ये असल और एकदम ताजे ब्यौरे मोटी-मोटी कई किताबों में रियल टाइम दर्ज हैं। इनमें कोई मिलावट नहीं है। कोई मनमर्जी नहीं है। जो देखा जा रहा था, जो घट रहा था, बिल्कुल वही जस का तस कागजों पर उतार दिया गया है। लेकिन आजादी के बाद के इतिहास लेखन में भारत के मध्यकाल के इतिहास का यह भोगा हुआ सच पूरी तरह गायब है।


इसके उलट हमने ऐसी नकली और मनगढ़ंत अच्छाइयों का महिमामंडन किया, जो दरअसल कहीं थी ही नहीं। भारत के मध्यकाल के इतिहास की किताबें कूड़े में से बिजली बनाने के विलक्षण प्रयासों जैसी हैं और इन प्रयासों का नतीजा यह है कि सत्तर साल बाद कूड़ा अपनी पूरी सड़ांध के साथ सामने है। बिजली की रोशनी आपके ख्यालों और ख्वाबों में ही रोशन है! और मध्यकाल के पहले जिसे एक बिखरा हुआ भारत माना गया, जो एक राजनीतिक इकाई के रूप में कभी था ही नहीं, उसमें एक सबसे कमाल की बात को आप साहेबान में किसी ने गौर करने लायक ही नहीं समझा। गुजरात में साेमनाथ से लेकर हिमालय में केदारनाथ तक शिव के ज्योतिर्लिंगों की स्थापना और पूजा परंपरा हजारों साल पुरानी है।


किसी मुल्क के इतने बड़े भौगोलिक विस्तार में देवी-देवता और उनकी मूर्तियाँ एक ही तरह से बनाईं और पूजी जा रही थीं। आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम के पहाड़ी स्तूपों से लेकर अफगानिस्तान के बामियान तक गौतम बुद्ध एक ही रूप में पूजे जा रहे थे, जिनके महान स्मारक इस छोर से उस छोर तक बन रहे थे। यह तो दो हजार साल पीछे की बातें हैं।


मतलब, राजनीतिक रूप से भले ही इतने बड़े भारत में हजार राजघराने राज कर रहे होंगे, मगर उनकी सांस्कृतिक पहचान एक ही थी। वह ‘कल्चरल कवर’ पूरे विस्तार में भारत का एक शानदार आवरण था, जिसके रहते आपसी राजनीतिक संघर्ष में भी भारत की संस्कृति चारों तरफ एक जैसी ही फलती-फूलती रही थी। यह महत्वपूर्ण बात थी, जिसे आजाद भारत के इतिहास लेखकों ने बिल्कुल ही नजरअंदाज किया। क्या यह अनेदखी अनायास है या एक शरारत जो जानबूझकर की गई?


अगर भारत के इतिहास को एक किक्रेट मैच के नज़रिए से देखा जाए तो पचास ओवर के टेस्ट मैच में सल्तनत और मुगल काल आखिरी ओवर की गेंदों से ज़्यादा हैसियत नहीं रखते। लेकिन इतिहास की कोर्स की किताबों में इन खिलाड़ियों को पूरे ‘मैच का मैन ऑफ द मैच’ बना दिया गया है। अगर मैच जिताने लायक ऐसा कुछ बेहतरीन होता भी ताे कोई समस्या या आपत्ति नहीं थी।


जिन लेखकों के नाम मैंने ऊपर लिखे हैं, उनके लिखे विवरणों से साफ जाहिर है कि सल्तनत और मुगल काल के सुल्तानों और बादशाहों के कारनामे अपने समय के इस्लामी आतंक और अपराधों से भरी बिल्कुल वही दुनिया थी, जो हमने सीरिया और काबुल में इस्लामिक स्टेट और अफगानिस्तान में तालिबानों के रूप में अभी-अभी देखी। इस्लाम के नाम पर भारत भर में वे बिल्कुल वही कर रहे थे, जो वे आज कर रहे हैं। सदियों तक माथा फोड़ने के बावजूद वे भारत का संपूर्ण इस्लामीकरण नहीं कर पाए और एक दिन खुद खत्म हो गए।


तीस साल बाद आज भी मैं इतिहास के विवरणों में जाता रहता हूँ। भारत की यात्राओं में मैं नालंदा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों के खंडहरों में भी घूमा हूँ और दूर दक्षिण के विजयनगर साम्राज्य के बर्बाद स्मारकों में भी गया हूँ। इनकी असलियत आपसे बेहतर कौन जानता है कि ये उस दौर में इस्लामी आतंक के शिकार हुए हैं। ऐसे हजारों और हैं।


बामियान के डेढ़ सौ मीटर ऊँचे बुद्ध तभी बने होंगे जब आज का पूरा अफगानिस्तान बौद्ध और हिंदू ही रहा होगा। वे सब हमेशा-हमेशा के लिए बरबाद कर दिए गए। लेकिन आजाद भारत की इतिहास की किताबों में सल्तनत और मुगलकाल के उन कारनामों पर पूरी तरह चादर डालकर लोभान जला दिए गए। माशाअल्लाह, इतिहास पर पड़ी इन चादरों के आसपास आप भी किसी सूफी से कम नहीं लगते।


अगर हिंदी सिनेमा की एक मशहूर फिल्म ‘शोले’ की नजर से भारत के इतिहास को देखा जाए तो मध्यकाल का इतिहास एक नई तरह की शोले ही है। आप जैसे महान विचारकों की इस रचना में गब्बर सिंह, सांभा और कालिया रामगढ़ के चौतरफा विकास की नीतियाँ बना रहे हैं। रामगढ़ पहली बार उनकी बदौलत ही चमक रहा है। रामगढ़ में विदेशी निवेश बढ़ रहा है और हर युवा के हाथ में काम है। बाजार नीतियाँ गज़ब ढा रही हैं। शेयर मार्केट आसमान छू रहा है। कारोबारी भी खुश हैं और किसान भी। मगर वीरू रामगढ़ की किसी गुमनाम गली में बसंती की घोड़ी धन्नो को घास खिला रहा है।


रामगढ़ में पसरे सन्नाटे के बीच जय मौलाना साहब का हाथ थामकर मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, क्योंकि अज़ान हो रही है। जय ने अपना माऊथ ऑर्गन जेब में खोंसा हुआ है क्योंकि नमाज़ का वक्त है और म्यूजिक हराम है, जिससे मौलाना साहब की इबादत में खलल हाे सकता है। ठाकुर के जुल्मो- सितम से निपटने के लिए जननायक गब्बर सिंह ने सूरमा भोपाली की अध्यक्षता में एक जाँच कमेटी बना दी है। बसंती ने गब्बर को राखी भेजी है और गब्बर ने खुश होकर रामगढ़ की आटा चक्की उसके नाम कर दी है। जेलर के गुणों से प्रसन्न मौसी बसंती और जेलर की जन्म कुंडली मिलवा रही हैं। गब्बर ने शिवजी के मंदिर में भंडारा कराया है और जन्मजात बदमाश गाँव के ठाकुर ने दंगे की नीयत से मस्जिद के पास की जमीन पर नाजायज कब्जे करा दिए हैं। आपसे ही पूछता हूँ कि मध्यकाल का इतिहास बिल्कुल ऐसा ही रचा गया एक फरेब नहीं है?


इतिहास की बात है, बहुत दूर तक न जाए, इसलिए इस खत को यहीं समेटता हूँ। मैं याद करता हूँ, तीस साल पहले जब एनसीईआरटी की किताबों में इतिहास को पढ़ना शुरू किया और कॉलेज में चलने वाली कोर्स की किताबों के जरिए भारत के मध्यकाल को पढ़ा तो उस दौर में अखबार में छपने वाले इतिहास संबंधी लेखों में इरफान हबीब और रोमिला थापर को अपने समय के महान प्रज्ञा पुरुषों के रूप में ही पाया।


अब तीस साल बाद मैं एक ऐसे समय में हूँ जब टेक्नालॉजी ने कमाल ही कर दिया है। इंटरनेट की फोर-जी जनरेशन अपने आईफोन पर आज सब कुछ देख सकती है और पढ़ सकती है। दुनिया की किसी भी लाइब्रेरी की किसी भी भाषा और उसके अपने अनुकूल अनुवाद में हर दस्तावेज हाथों पर मौजूद है।


भारत का अतीत आज हर युवा को आकर्षित कर रहा है। वह भले ही किसी भी विषय में पढ़ा हो लेकिन इतिहास में पहले से बहुत ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है। वह सच को जानने में उत्सुक है। बिना लागलपेट वाला सच। बिना मिलावट वाला इतिहास का सच, जिसमें न किसी सरकार की मनमर्जी हो और न किसी पंथ की बदनीयत!


इतिहास जानने के लिए उसे एमए की डिग्री और मिलावटी किताबें कतई जरूरी नहीं हैं। भारत के विश्वविद्यालयों के इतिहास विभाग दरअसल इतिहास के ऐसे उजाड़ कब्रिस्तान हैं, जहाँ डिग्री धारी मुर्दा इतिहास के नाम पर फातिहा पढ़ने जाते रहे हैं। उनकी आँखें  मध्यकाल के इतिहास में की गई आपराधिक मिलावट को देख ही नहीं पातीं। लेकिन इंटरनेट ने सारी दीवारें गिरा दी हैं। सारे हिजाब हटा दिए हैं। सारी चादरें उड़ा दी हैं और मध्यकाल अपनी तमाम बजबजाती बदसूरती के साथ सबके सामने उघड़कर आ गया है।


जिस इस्लाम के नाम पर दिल्ली पर कब्ज़े के बाद सात सौ सालों तक और सिंध को शामिल करें तो पूरे हज़ार साल तक भारत में जो कुछ घटा है, वह सब दस्तावेजों में ही है। आज के नौजवान को यह सुविधा इन हजार सालों में पहली ही बार मिली है कि वह उसी इस्लाम की मूल अवधारणाओं को सीधा देख ले। कुरान अपने अनुवाद के साथ सबको मुहैया है और हदीसों के सारे संस्करण भी। भारत के लोग जड़ों में झाँक रहे हैं जनाब।


कभी बहुत इज़्ज़त से याद किए जाने वाले इरफान हबीब और रोमिला थापर आज इतिहास लेखन का ज़िक्र आते ही एक गाली की तरह क्यों हो गए हैं, जिन्होंने उल्टी व्याख्याएँ करके इतिहास को दूषित करने की कोशिश की। वक्त मिले तो कभी विचार कीजिए।


क्यों लोग इतनी लानतें भेज रहे हैं। वामपंथ को अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की यह दिव्य दृष्टि कहाँ से प्राप्त होती है? मेरे लिए यह भीतर तक दुखी करने वाला विषय इसलिए है क्योंकि मैंने जिस दौर में इतिहास पढ़ना शुरू किया, आप महानुभावों को सबसे योग्य इतिहासकारों के रूप में ही जाना और माना था। ऊँचे कद और लंबे तजुर्बे के ऐसे लोग जिन्होंने भारत के इतिहास पर किताबें लिखीं। यह कितना बड़ा काम था।


आजादी और मजहब की बुनियाद पर मुल्क के बँटवारे के साथ एक नया सफर शुरू कर रहे हजारों साल पुराने मुल्क में इससे बड़ा अहम काम और कोई नहीं था। जो इतिहास लिखा जाने वाला था, आजाद भारत की आने वाली पीढ़ियाँ उसी के जरिए अपने मुल्क के अतीत से रूबरू होने वाली थीं। लेकिन हुआ क्या? आज आप स्वयं को कहाँ पाते हैं?


जनाब, मैं चाहता हूँ कि आप चुप्पी तोड़ें। गिरेबाँ में झाँकें, उठ रहे हर सवाल का जवाब दें। सामने आएँ और मेहरबानी करके हाथापाई न करें। अपने समूह के अन्य इतिहास लेखकों को भी साथ लाएँ। वैसे भी आपको अब पाने के लिए रह ही क्या गया है। पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कार से परे हैं आप। न अब और कुछ हासिल होने वाला है और न ही यह कोई छीनकर ले जाएगा!


इतिहास से अगर कोई छेड़छाड़ या मिलावट नहीं हुई है तो आपको खुलकर कहना चाहिए। क्या आपको यह नहीं लगता कि आजादी के बाद अपनाई गई इतिहास लेखन की प्रक्रिया दूषित और दोषपूर्ण थी? क्या आज भी आपको लगता है कि सल्तनत और मुगल काल जैसे कोई कालखंड वास्तविक रूप में वजूद में रहे हैं या दिल्ली पर कब्जे की छीना-झपटी में हुई हिंदुस्तान की बेरहम पिसाई का वह एक कलंकित कालखंड है?


आखिर उस सच्चाई पर चादर डाले रखने की ऐसी भी क्या मजबूरी थी? हमारी ऐसी क्या मजबूरी थी कि हम उन लुटेरे, हमलावरों और हत्यारों को सुल्तान और बादशाह मानकर ऐसे चले कि हमने उन्हें देवताओं के बराबर रख दिया और देवताओं को हाशिए पर भी जगह नहीं मिली?


आप सोचिए आजादी के बाद हमारी तीन पीढ़ियाँ यही मिलावटी झूठ पढ़ते हुए निकली हैं? इसका जरा सा भी अपराध बोध आपको हो तो आपको जवाब देना चाहिए। इस खत का जवाब मुझे नहीं, इस देश की आवाम को दें, जो इतिहास के प्रति पहले से ज्यादा जागी हुई है। सारे फरेब उसके सामने उजागर हैं।


अंत में यह और कहना चाहूँगा कि आज की नौजवान पीढ़ी मध्यकाल के इतिहास को देख और पढ़ रही है तो वह इन ब्यौरों की रोशनी में टेक्नालॉजी के ही ज़रिए आज के सीरिया, इराक, ईरान, यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कुछ अफ्रीकी मुल्कों की हर दिन की हलचल को भी देख पा रही है।


तारीख के जानकार आलिमों के इजहारे-ख्यालात ठीक उसी समय सबके सामने नुमाया है, जब वे अपनी बात कह रहे हैं। अब अगले दिन के अखबार का भी इंतजार बेमानी हो गया है। कुछ भी किसी से छिपा नहीं रह गया है। आज की जनरेशन 360 डिग्री पर सब कुछ अपनी आँखों से देख रही है और अपने दिमाग से सोच और समझ रही है। किसी राय को कायम करने के लिए अब मिलावटी और बनावटी बातों की जरूरत नहीं रह गई है।


ईश्वर आपको अच्छी सेहत और लंबी उम्र दे। ताकि सत्तर साल का इतिहास के कोर्स का बिगाड़ा हुआ हाजमा आप अपनी आँखों से सुधरता हुआ भी देख सकें। हमें यह भी मान लेना चाहिए कि आखिरकार ऊपरवाला सारे हिसाब अपने बंदों के सामने ही बराबर कर देता है!

बहुत शुक्रिया।


- मूल लेखक श्री विजय मनोहर तिवारी जी है और ये हमे व्हाट्सएप में एक ग्रुप के माध्यम से मिला, सत्य लगा तो यहाँ पर है।

Thursday, September 1, 2022

क्या था आरक्षण का उद्देश्य और कहाँ पहुँचे हम ?

 अभी अभी समाचार में देखा और पाया की इतनी जातियों को OBC श्रेणी से निकाल कर SC श्रेणी में डाला जायेगा, यानि अगर आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन OBC के लिए 40% है तो SC के लिए 20 % है, यानि की पहले से बुरी स्थिति में पहुंच गयी है ये जातियाँ, आखिर क्यों पहुंच गयी है इसका कोई सर्वे होना चाहिए, क्युकी आरक्षण आज समाज में समरसता लाने वाला कार्य नहीं कर रहा है, वल्कि द्वेष और भेदभाव बढ़ने का कारण बन रहा है जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने नहीं की होगी।  


जब आरक्षण लागू हुआ था तो १० वर्ष के लिए था और सोच ये थी की सरकारी नौकरी और शिक्षा प्राप्ति के बाद लोग अपने सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन से मुक्ति पायेगे, लेकिन पहले ही दशक में इसको राजनीती से जोड़कर १० साल के लिए और बढ़ाया गया क्युकी नेहरू जी को लगा की इसको हटाने से वोट बैंक खिसक सकता है, और उस समय उनके दिमाग में सिर्फ सत्ता के लिए प्रस्यास था जिसमे देश हित दूर दूर तक नहीं था, कहने वाले कह सकते है की अभी तक उनका सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन दूर नहीं हुआ था इसलिए नेहरू जी बढ़ाये थे, तो वो तो आजतक नहीं हुआ और होगा भी नहीं, खैर इसबात को आगे बढ़ायेगे। 

तो बात करते है जिस समय लागु हुआ था उस समय जिन जातियों को जोड़ा गया होगा जरूर किसी सर्वे के अंतर्गत जोड़ा गया होगा की ये जातियाँ आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी है, यानि की बाकी उस समय आर्थिक और सामाजिक रूप से सही रही होगी ? या नहीं ?, बिलकुल सही रही होगी नहीं तो उनको भी जोड़ा जाता। 

लेकिन २ दशक बाद ही ४० और जातियों को आरक्षण वाली लिस्ट में जोड़ा गया, जिस समय जोड़ा गया होगा सर्वे हुआ होगा ? लेकिन ये सर्वे भी तो होना चाहिए था की पहले आर्थिक और सामाजिक रूप से सही जातीया पिछड़ कैसे गयी ? और ३ दशक में कोई भी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की दीवार फांद कर सामान्य क्यों नहीं बना ? क्या जिनको एकबार लाभ मिला वो ही बार बार लेकर पिछड़ेपन के सारे लाभ खुद तक ही रोक रहे है ? इसका भी सर्वे होना चाइये था। 

क्युकी तत्कालीन बुद्धिजीविओ का ये तो उद्देस्य होगा नहीं की समाज में समान्तर समाज चले, उनका उद्देस्य होगा की सने सने सब मुख्य धारा में शामिल होकर देश की उन्नति में भागीदार बने न की एक वर्ग के टेक्स  के धन से मौज उड़ाए, यानी की इस उद्देस्य में कहाँ तक सफल हुए इसका भी सर्वे होना ही चाइये था। 

फिर आया मंडल आयोग इसने कई और जातियों पर पिछड़ेपन की मोहर लगा दी, जरूर कोई सर्वे किया होगा की पिछड़े है सामाजिक और आर्थिक रूप, लेकिन ये सर्वे क्यों नहीं हुआ की ये पहले ठीक  पिछड़ कैसे गए ? कहि आरक्षण हमे और हमारे विकास मार्ग को उलटी तरफ तो नहीं ले जा रहा है , ये सोच और सर्वे होना चाहिए था। 

आरक्षण देने का विचार इसलिए आया था की सभी वर्ग, सभी जाति और सभी क्षेत्र के लोगो को अवसर मिले और एक समय के बाद सब समान हो जाए, ये एक टेम्परेरी व्यवस्था जिसे परमानेंट जाति के साथ जोड़कर बपौती बना दिया है, आजतक ये सर्वे क्यों नहीं हुआ की कितने लोगो ने एक से ज्यादा बार आरक्षण लेकर किसी दूसरे का हक मारा है ? ये सर्वे क्यों नहीं हुआ की कितने लोग इतने सालो में सामान्य वर्ग में आये है ? ये नियम अभी तक क्यों नहीं बना की एक परिवार आरक्षण की सुविधा एकबार, ये इसलिए नहीं हुआ क्युकी उद्देस्य किसी को उठा कर सामान्य नागरिक बनाने का था ही नहीं, उद्देस्य था भारत के नागरिको को राजनैतिक रूप से टुकड़ो में बाँट कर वोटबैंक को सशक्त करना जो होता ही जा रहा है, भले ही देश  जर्जर हो जाये, गृहयुद्ध की आग में जल जाए लेकिन वोटबैंक  सेंधमारी  नहीं चाहिए। 

Saturday, May 14, 2022

आपको मेरी कविता पुस्तक चाय का प्याला क्यों पढ़नी चाहिए?


आज के समय एक भागदौड़ भरी जिंदगी में हम न तो प्रकृति की सुन्दरता का आनंद ले पाते है, न रिश्तो की संवेदनशीलता समझ पाते है और न ही पैसे कमाने की होड़ में खुद को रोक पाते है, और अगर हम ऐसा करने लगते है तो जीवन में एक अकर्मण्यता आने लगती है जिसे कहते है सब चल तो रहा है और धीरे धीरे हम पिछड़ने लगते है और फिर हमारे अपने ही हमारे अस्तित्व को नकारना शुरू कर देते है, ये पीड़ा पहले वाली समस्या से भी बड़ी है, अम्ब्रीश की ये कविताये आपको एक संतुलित जीवन जीने की कला सिखाएगी जिसमे आप व्यक्तिगत जीवन एवं आत्मोन्नति के प्रयासों को एकसाथ ईमानदारी से लेकर चल सके और न किसी को उपेक्षित करें और न ही किसी के द्वारा उपेक्षित हो। कविता की किताब यहाँ पर उपलब्ध है 

थोड़ा और प्रकाश डालना चाहुगा की, यहाँ पर चाय का प्याला सिर्फ एक अर्थ या भाव को व्यक्त नहीं करता है, कभी ये भौतिक उन्नति का परिचायक है, कभी आत्मिक उन्नति का, कभी रिश्तो को सहेजने वाली विधा है तो कभी जीवन में निष्कलंक बने रहने की सादगी है, ऐसे ऐसे अर्थो में चाय का प्याला प्रयुक्त हुआ है की आपको भी लगेगा की हर जगह एक चाय का प्याला आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। 

अब थोड़े वर्तमान परिवेश में प्रवेश करते है, जैसे की भौतिक सुखो का होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना आपके द्वारा प्रसन्नचित होकर उन भौतिक सुखो का आनंद लेना, लेकिन कई बार हम भौतिको सुखो में इतने आत्ममुग्ध हो जाते है की प्रकृति, पर्यावरण, वातावरण, रिश्ते और आत्मिक उन्नति की तरफ ध्यान नहीं देते, ये भी नहीं सोच पाते है की एक दिन सब छोड़कर जाना पड़ेगा और उस समय हमारे अपने हमारा साथ भी देंगे या नहीं, क्युकी भौतिकता के सुख में हमने उनको तो नकार दिया है। 


दूसरी तरफ दिक्क्त ये है की अगर अपनों से सिर्फ प्रेम करो और भौतिक सुखो के साधन न इकठ्टे करो तो भी अपने अपने होकर भी अपने नहीं होते है या नहीं होंगे, तो इस दुविधा से कैसे निकलना है या फिर इन परिस्थिओं में कैसे सामजस्य बिठा कर अपना और अपनों के हित का  साधन भी किया जाय, यही सब कुछ इसमें कविताओ के माध्यम से बताया गया है। 


वैसे तो चाय का प्याला पूरी तरह से वास्तविक चाय के प्याले से अलग है, फिर भी चाय की विशिष्टता को मै नकार नहीं सकता हूँ, ये उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी पहले थी, क्युकी चाय से हम भारतीओं का परिचय हुये हुए बहुत समय बीत गया और इसका अब पूरी तरह से भारतीयकरण हो भी गया है, जिन्होंने चाय का अविष्कार किया होगा वो सोच ही सकते थे की इसमें दूध, इलायची, अदरक, काली मिर्च भी डाली जा सकती है तो इस तरह से मेरे समय में ही चाय एक अतिविशिष्ट पेय बन गया था जो आज भी है।  

एक समय था जिसे हम २०वी सदी कह सकते है उस समय स्वागत सत्कार का एकमात्र माध्यम चाय ही हुआ करती थी, (अब तो ना जाने कितने पेय दृव्य आ चुके है जो आलसियों के लिए अमृत समान है लेकिन चाय आलस्य भगा कर जगा देती है ) और उस चाय पीना और पिलाना एक गर्व की बात हुआ करती थी, ये जितनी विशिष्ट थी उतनी ही सहज और समर्पित भी थी जैसे किसी ने अगर चाय नहीं पिलाई तो कहते थे उन्होंने चाय के लिए भी नहीं पूछा और विशिष्ट तो इतनी थी की हर प्रकार के संवेधनशील वार्तालाप में चाय ही साथ देती थी, विद्यार्थीओ का, अधिकारिओं का, मेहमानो का सभी के लिए चाय ही विशेष महत्त्व रखती थी और आज भी है। तो हम उम्मीद करते है बहुत से अर्थो को समाहित किये हुए मेरी चाय का प्याला को आपके हाथो का इंतज़ार है।