जातियां कैसे बनी और कैसे हुआ जातिगत भेदभाव
इस भाव प्रधान समस्या को समझने के लिए हम बजाये पीछे से चलकर आगे आने से, वर्तमान समय से अध्ययन करके पीछे की तरफ चलते है, आज भी समाज बंटा हुआ है? क्या नहीं बटा है !
जीहा बटा हुआ है, कोई कबीर वादी है, कोई अम्बेडकरवादी है, कोई बौद्ध वादी है, कोई पेरियार वादी है, कोई बीजेपी का है, कोई कांग्रेस का है, कोई किसी अन्य पार्टी का सदस्य है या फिर किसी अन्य मत को मानने वाला है, जैसे राम रहीम, निरंकारी बाबा, निरमल बाबा, या जय गुरुदेव या फिर और भी कई अन्य।
अब इन सबके काम और निष्ठा में थोड़ा थोड़ा अंतर् तो होगा ही, साथ ही साथ जो जिस पार्टी या मत को मानने वाला होगा वो उसी मत या पार्टी को मानने वाले के पास बैठना और बात करना ज्यादा पसंद करेगा, क्युकी मन और निष्ठा मिली हुयी है, जबकि किसी दूसरे मत या पार्टी को मानने वालो को या तो हीन दृस्टि से देखेंगे या फिर द्वेष के भाव से।
अब जो व्यक्ति जिस पार्टी या मत को निष्ठापूर्वक मानेगा वो यही चाहेगा की उसकी अगली पीढ़ी उसके इस मत और निष्ठा को आगे बढ़ाये, तो वो व्यक्ति अपनी निष्ठा और भक्ति विरासत में अपनी आने वाली पीढ़ी को देकर जाता है और साथ ही दे जाता है अन्य मत एवं पार्टी के प्रति घृणा और द्वेष भी विरासत में।
फिर जैसे जैसे आत्मविस्वास और आत्मिक बल में वृद्धि होती है, लोग मत एवं पार्टी के साथ आत्मीयता का भाव रखने लगते है, और यही उनके जीवन जीने के आत्मविस्वास का आधार बन जाता है और अन्य मत एवं पार्टी उसको सुहाती ही नहीं है, किसी कारण से अन्य मत या पार्टी का व्यक्ति शक्ति संपन्न होकर अपना अधिपत्य स्थापित कर लेता है तो अन्य मताबलम्बिओ को घुटन होने लगती है और एक संघर्ष शुरू हो जाता है।
क्या स्वतंत्रता है हमको और उनको
अब यहाँ एक बात जान लेनी बहुत जरुरी है, की आप किसी भी मत या पारटी के प्रति के प्रति निष्ठा बदलने को पूर्ण स्वतंत्र है लेकिन आप नहीं बदलते है क्युकी ये अब आपके जीवन का आधार बन गया है और चुनते समय आपको सुगम लगा होगा, ऐसे ही जब आदिकाल में वर्गों का वर्गीकरण कर्मो के आधार पर हुआ था तब कोई कुछ भी चुन सकता था।
जैसे आज स्नातक के बाद आप किसी भी नौकरी की तैयारी कर सकते है, लेकिन ये आपके ऊपर है की आप खुद को किस के लाइक समझते है, हो सकता है आप आईएएस का एग्जाम दे और असफल होने पर क्लर्क बने और फिर आईएएस अधिकारी को गालिया देते रहे ये बस एक खन्नस मात्र है और यही कर्म आधारित वर्गीकरण में हुआ था।
उस समय सभी को अपना अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार जरूर दिया गया होगा, क्युकी सृस्टि के आरम्भ में तो कोई वर्गीकरण रहा नहीं होगा, ये तो समाज को व्यवस्थित करने के लिए बाद में हुआ होगा, फिर उस वर्गीकरण के अंदर जिसने जो काम चुना वही उसकी पहचान बनती गयी और वो खुस भी था लेकिन जब उसके अंदर हीन भावना को भरा गया तब उसे बुरा लगा।
अब प्रश्न ये है की हीन भावना भरने वाले कौन लोग थे ? उनका उद्देस्य क्या था ?
इनका कोई उद्देस्य न होते हुए उद्देस्य था, सामाजिक संतुलन को अव्यवस्थित करना, क्युकी एक विकृत मानसिकता के लोग किसी भी अवस्था में सब सही होते नहीं देख सकते है, उनको चाहिए की कुछ उठापटक होती ही रहे, अतएव उन्होंने पहले खुद ही कर्मो को करने वालो को उपेक्षित किया जिससे कर्म करने वाले के आत्मसम्मान और आत्मविस्वास हो ठेस पहुंचे और जब दर्द का फोड़ा बन गया तो खुद ही सुई चुभा कर उसे फोड़ दिया और फिर खुद ही मरहम पट्टी करने को पहुंच गए, और बाकि लोग इस समस्या से अनजान इसलिए बने रहे क्युकी उनके मन में कोई द्वेष था ही नहीं।
तुलनात्मक मूर्खता
अब धीरे धीरे ये मवाद बाकि कर्म करने वालो में भी पहुंचने लगा, अब लोग बजाये अपना कर्म तल्लीनता से करने के एक तुलनात्मक अध्ययन में जुट गए, की हम ये काम करते है इसलिए कम इज्जत है और वो ये काम करते है इसलिए उनकी इज्जत है, इसलिए अब हम ये काम नहीं वो काम करेंगे, अब प्रश्न ये उठा की फिर ये काम कौन करेगा ? तो विकृत मानसिकता के लोग तो तैयार बैठे ही थे इस मौके की तलाश में, बोले मशीन है ये काम करने को, इस मशीन युग के आने से कोई क्रांति नहीं हुयी वल्कि बेरोजगारी बढ़ी और समाज में एक दूसरे पर निर्भरता खत्म हुयी।
सामाजिक निर्भरता का अंत दुखद है
पहले जब कोई काम होता था तो हर वर्ग के व्यक्ति का एक महत्वपूर्ण स्थान होता था और अगर वो थोड़े नाराज होते थे तो उनको मनाया भी जाता था लेकिन मशीनों के आने से उनकी तारजगी को मनाया नहीं गया वल्कि उपेक्षित ही कर दिया गया, परिणाम उनको और ज्यादा बुरा लगा, इस भावनात्मक चोट ने उनसे उनका पारम्परिक काम भी छुड़वा दिया और जिस काम के लिए छोड़ा वो भी उनको मिल नहीं पाया, परनाम हुआ समाज में एक वर्ग संघर्ष का प्रादुर्भाव हुआ
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