भारत में वर्ग संघर्ष के लक्षण
भारत में आज जो हालात दिख रहे है वो आने वाले समय में बहुत बड़े वर्ग संघर्ष में बदलने वाला है, वर्ग कोई भी पुरुष, स्त्री, दलित, पिछड़ा या फिर अल्पसंख्यक हर वर्ग की अपनी जरूरते है, अधिकार है, सम्मान से जीने की चाहत है, आज जो भी नियम कायदे कानून बन रहे है वो सिर्फ एक ही कर्ज के विरोध में बनते दिख रहे है और वो है हिन्दू सवर्ण पुरुष, आप देखिये हिन्दू आयोग नहीं है जबकि अल्पसंख्यक आयोग है, सवर्ण आयोग नही है जबकि दलित और पिछड़ा वर्ग आयोग है, पुरुष आयोग नहीं है जबकि महिला आयोग है.
शायद देश के अधिकारी वर्ग ये मान कर चलते है की हिन्दू सवर्ण पुरुष के अलाबा सब लोग बहुत भोले, निस्चल और पवित्र है, वो किसी का बुरा नहीं चाहते, उनकी कोई महत्वकांक्षाये नहीं है, उनको किसी से कोई द्वेष नहीं वो लोग सिर्फ जीना चाहते है और हिन्दू सवर्ण पुरुष उनको जीने नहीं देता है।
जबकि आज़ादी के बाद से बने नियमो ने हिन्दू सवर्ण पुरुषो के हाथ पूरी तरह से बांध दिए है, वो अपने आत्मविस्वास को खो रहा है, देश के कानून विस्वास उठ रहा है, उसको अपनी दैनिक जरूरतों के लिए बाकियो से ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि उसको कोई सरकारी सहायता नही है, कोई रियायत नही है, फिर भी वो शान से जी रहा है ये बाकियो को खटकता रहता है और कोशिश करते है उसको और झुकाने में और तोड़ने में।
मानता हूँ की सरकार चाहती है की देश का दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक और महिला वर्ग सम्मान से जिए पर इसका ये मतलब तो नहीं की जो पहले से सम्मान से उनका सम्मान छीन लो, मानता हूँ हिन्दू सवर्ण पुरुष किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए बहुसंख्यक वोटबैंक न्हहि है पर फिर भी देश चलने में इस वर्ग की भी जरुरत है
आजादी के बाद १९५१ में जमींदारी उन्मूलन एक्ट संसद में प्रथम बार पारित हुआ, और १९५६ में कई राज्यो ने भी इसको लागु किया, इसमें कहा गया था की देश के गरीब, मजदूर और भूमिहीनों को जमीन दी जाएगी, इसके अनुसार तय किया गया की जिसके पास भी भूमि है उससे लेकर बाकि लोगो को बाँट दी जाएगी और मौजूद मालिक को सिर्फ २० बीघा जमीन दी जाएगी।
;इसमें विनोवा भावे ने भी भूदान आंदोलन चला कर जमींदारों को प्रोत्साहित किया, लोगो ने उदारता दिखाई और अपनी जमीन सर्कार को देदी, १९५१ की जनगणना के अनुशार देश की जनसँख्या मात्रा ४२,४२७,५१० थी, जिसमे बच्चे बड़े और महिलाये शामिल थे, तो हम ये मान कर चलते है की उस समय १४ करोड़ से काम परिवार रहे होंगे।
और इस श्रेणी के लोगो को जमीन देने की बात की गए होगी वो १० करोड़ से काम ही रहे होंगे, और काफी लोगो को अपनी स्तिथि सुधारने के लिए जातिगत आरक्छन का लाभ भी मिला होगा, पर आज भी अगर हालात वैसे ही है तो फिर कोन्ग्रेस्स ने जाती धर्म के आधार पर आरक्छन देकर और जमींदारी उन्मूलन एक्ट लगा कर देश का और देश के लोगो का भला क्या किया, वल्कि जिनकी जमीन थी उनको भिखारी बना दिया।
इससे जिनको जमीन मिली वो काफी आत्मविस्वास में आकर अपने पूर्ववर्ती जमींदारों से अकड़ दिखने लगे, और जो उदार जमींदार थे उनको बहुत बुरा लगा, फिर उनलोग ने भी गरीबो और निम्न जातीय लोगो से दूरिया बनानी शुरू कर दी, क्योंकि एक तो उनकी जमीन गयी, नौकरियों में आरक्छन होने से नौकरी के चांस भी कम हुए, ऊपर से उनकी अकड़ का जबाब दे तो देश का कानून उनको ज्यादा परेशां करता था, नतीजा ये हुआ की गरीबो और निम्न जातियो के लोगो से दूर रहो.
और फिर धीरे धीरे सब अपने अपने हालात में मगन होते गए, पर आंतरिक द्वेष, घृणा और भय दोनों ही तरफ के लोगो में पनपने लगा और ये बढ़ने भी लगा, आज भी सबके सब एक दूसरे के बारे में यही सोचते है की ये वर्ग के लोग दूसरी दुनिया के है।
आज एक वर्ग का व्यक्ति पूरी कोशिश करता है स्वयम को दुसरो वर्ग से श्रेष्ठ दिखाने की, दलितों, पिछडो, महिलाओ और मुसलमानो को आरक्छन, कानून और अनुदान की
वैसाखी है इसलिए उनमे आत्मविस्वास ज्यादा है और वो अपने आप हिन्दू सवर्ण पुरुषो दुरी बनाये हुए है, और हिदू सवर्ण पुरुषो को सरकार से कोई भी सुविधा नहीं है, वल्कि उल्टा उस पर समय समय पर नियमो और फीस बढ़ोत्तरी का डंडा पड़ता रहता है, तो वो भी सोचता है, गैर हिन्दू सवर्ण पुरषो को लक्ष्य प्राप्ति के लिए कम परिश्रम करना पड़ता है, और हमे ज्यादा इसलिए बजाये समय बर्बाद करने के इनसे दूरिया ही बनाये रखो, और यारी दोस्ती में कोई बात मजाक में उलटी निकल गयी तो कानून के लपेटे में भी आ जायेगे और जिंदगी बर्बाद, इन दो महान कारणों के कारन हिन्दू सवर्ण पुरुष बाकि वर्ग के लोगो से दूरिया बनाते है.
पर ये हालात न तो देश के लिए ठीक है और न हे समाज के लिए, समाज के अंदर अभी भी करोडो दलित, पिछड़े, मुसलमान और महिलाये है जो सक्छम है और करोडो हिन्दू सवर्ण पुरुष होंगे जिनकी दो वक्त की रोटी की जुगाड़ नहीं हो रही होगी, तो अब सरकार को चाहिए, बजाये जाती, धर्म और लिंग को आधार मान कर सुविधाएं देने का काम रोक कर आर्थिक आधार पर दे, क्योंकि जाती धमर और लिंग का डाहर एक बाउट व्यापक है, इसमें बहुत से सक्छम लोग भी आ जाते है और इसके कारण बहुत से ऊँची जाती के अक्छम लोग भी सरकारी सुविधाओ से वंचित हो जाते है।
सरकार को समाज और देश के उत्थान के लिए सबका ध्यान रखना होगा नहीं तो धीरे धीरे जिसे पहले वो सोषक मानकर नियम बनाते चले आये वो शोषित हो जायेगा और पहले का शोषित अब सोषक हो जायेगा, और फिर देश में गृहयुद्ध एयर वर्ग संघर्ष होना तय है, क्योंकि अपनी जरूरते पुरे करने का अधिकार सबको है.
शायद देश के अधिकारी वर्ग ये मान कर चलते है की हिन्दू सवर्ण पुरुष के अलाबा सब लोग बहुत भोले, निस्चल और पवित्र है, वो किसी का बुरा नहीं चाहते, उनकी कोई महत्वकांक्षाये नहीं है, उनको किसी से कोई द्वेष नहीं वो लोग सिर्फ जीना चाहते है और हिन्दू सवर्ण पुरुष उनको जीने नहीं देता है।
जबकि आज़ादी के बाद से बने नियमो ने हिन्दू सवर्ण पुरुषो के हाथ पूरी तरह से बांध दिए है, वो अपने आत्मविस्वास को खो रहा है, देश के कानून विस्वास उठ रहा है, उसको अपनी दैनिक जरूरतों के लिए बाकियो से ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि उसको कोई सरकारी सहायता नही है, कोई रियायत नही है, फिर भी वो शान से जी रहा है ये बाकियो को खटकता रहता है और कोशिश करते है उसको और झुकाने में और तोड़ने में।
मानता हूँ की सरकार चाहती है की देश का दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक और महिला वर्ग सम्मान से जिए पर इसका ये मतलब तो नहीं की जो पहले से सम्मान से उनका सम्मान छीन लो, मानता हूँ हिन्दू सवर्ण पुरुष किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए बहुसंख्यक वोटबैंक न्हहि है पर फिर भी देश चलने में इस वर्ग की भी जरुरत है
आजादी के बाद १९५१ में जमींदारी उन्मूलन एक्ट संसद में प्रथम बार पारित हुआ, और १९५६ में कई राज्यो ने भी इसको लागु किया, इसमें कहा गया था की देश के गरीब, मजदूर और भूमिहीनों को जमीन दी जाएगी, इसके अनुसार तय किया गया की जिसके पास भी भूमि है उससे लेकर बाकि लोगो को बाँट दी जाएगी और मौजूद मालिक को सिर्फ २० बीघा जमीन दी जाएगी।
;इसमें विनोवा भावे ने भी भूदान आंदोलन चला कर जमींदारों को प्रोत्साहित किया, लोगो ने उदारता दिखाई और अपनी जमीन सर्कार को देदी, १९५१ की जनगणना के अनुशार देश की जनसँख्या मात्रा ४२,४२७,५१० थी, जिसमे बच्चे बड़े और महिलाये शामिल थे, तो हम ये मान कर चलते है की उस समय १४ करोड़ से काम परिवार रहे होंगे।
और इस श्रेणी के लोगो को जमीन देने की बात की गए होगी वो १० करोड़ से काम ही रहे होंगे, और काफी लोगो को अपनी स्तिथि सुधारने के लिए जातिगत आरक्छन का लाभ भी मिला होगा, पर आज भी अगर हालात वैसे ही है तो फिर कोन्ग्रेस्स ने जाती धर्म के आधार पर आरक्छन देकर और जमींदारी उन्मूलन एक्ट लगा कर देश का और देश के लोगो का भला क्या किया, वल्कि जिनकी जमीन थी उनको भिखारी बना दिया।
इससे जिनको जमीन मिली वो काफी आत्मविस्वास में आकर अपने पूर्ववर्ती जमींदारों से अकड़ दिखने लगे, और जो उदार जमींदार थे उनको बहुत बुरा लगा, फिर उनलोग ने भी गरीबो और निम्न जातीय लोगो से दूरिया बनानी शुरू कर दी, क्योंकि एक तो उनकी जमीन गयी, नौकरियों में आरक्छन होने से नौकरी के चांस भी कम हुए, ऊपर से उनकी अकड़ का जबाब दे तो देश का कानून उनको ज्यादा परेशां करता था, नतीजा ये हुआ की गरीबो और निम्न जातियो के लोगो से दूर रहो.
और फिर धीरे धीरे सब अपने अपने हालात में मगन होते गए, पर आंतरिक द्वेष, घृणा और भय दोनों ही तरफ के लोगो में पनपने लगा और ये बढ़ने भी लगा, आज भी सबके सब एक दूसरे के बारे में यही सोचते है की ये वर्ग के लोग दूसरी दुनिया के है।
आज एक वर्ग का व्यक्ति पूरी कोशिश करता है स्वयम को दुसरो वर्ग से श्रेष्ठ दिखाने की, दलितों, पिछडो, महिलाओ और मुसलमानो को आरक्छन, कानून और अनुदान की
पर ये हालात न तो देश के लिए ठीक है और न हे समाज के लिए, समाज के अंदर अभी भी करोडो दलित, पिछड़े, मुसलमान और महिलाये है जो सक्छम है और करोडो हिन्दू सवर्ण पुरुष होंगे जिनकी दो वक्त की रोटी की जुगाड़ नहीं हो रही होगी, तो अब सरकार को चाहिए, बजाये जाती, धर्म और लिंग को आधार मान कर सुविधाएं देने का काम रोक कर आर्थिक आधार पर दे, क्योंकि जाती धमर और लिंग का डाहर एक बाउट व्यापक है, इसमें बहुत से सक्छम लोग भी आ जाते है और इसके कारण बहुत से ऊँची जाती के अक्छम लोग भी सरकारी सुविधाओ से वंचित हो जाते है।
सरकार को समाज और देश के उत्थान के लिए सबका ध्यान रखना होगा नहीं तो धीरे धीरे जिसे पहले वो सोषक मानकर नियम बनाते चले आये वो शोषित हो जायेगा और पहले का शोषित अब सोषक हो जायेगा, और फिर देश में गृहयुद्ध एयर वर्ग संघर्ष होना तय है, क्योंकि अपनी जरूरते पुरे करने का अधिकार सबको है.
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