Way common dalit is still unprivileged in India

मैने बहुत से समाज सुधारक की जीवनी पढ़ी है में सबसे पहले राजा राम मोहन राय आते है जिह्नो दलितों के हित के लिए काम किया, फिर ईश्वर चन्द विद्या सागर आये, फिर  और भी कई  लोग आये जिनमे एक दलितों के परम प्रिय आंबेडकर जी भी है, पर आज भी दलित उसी दुर्दशा में जी रहा है जिसके लिए पुरे सवर्ण समाज को गालिया दी जाती रही है, आज तो लोक तंत्र है, लाखो दलित अच्छे पदो पर है, कुछ व्यवसायी भी है, बहुत से राजनेता है, और कई तो बहुत समृद्ध भी है, फिर भी क्यों ये वर्ग बदहाल है।


आज भी कोई उभरता हुआ  नेता जैसे ही चुनाव के लिए मैदान में उतरता है वो भी कहता है में अपने दलित भाई बहनो के लिए ये करुगा वो करुगा पर चुनाव जीतने  के बात तू कौन और मै कौन जैसे हालात बन जाते है, शायद नेताओ  दलित प्रेम अपना उल्लू सीधा करने तक ही है।

कुछ जरुरी बाते  है जिनको समझने के लिए हमे १८५७ की लड़ाई के बारे में जानना पढ़ेगा, जब १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ तब उसके प्रणेता जो भी थे वो सब ऊँची जाती  के थे जैसे मंगल पण्डे चित्तू पण्डे कुँवर सिंह लक्ष्मी बायीं और भी कई महान लोग थे, पर इस संग्राम के बाद अंग्रेजो ने इस संग्राम का बड़े ही संजीदगी से अध्ययन किया और पाया की ऊँची जाती के लोगो में आज भी धर्म के प्रति प्रेम है और अगर इसको छेड़ेगे तो वो हमे नही छोड़ेंगे और अगर इनको दो वक्त की रोटी की फ़िक्र में फंसा दिया जाये तो ऊँची जाती के अवसरवादी लोग बाकि धर्मनिष्ठ  लोगो से अलग हो जायेगे और इनका संगठन फिर इतना मजबूत नहीं रह पायेगा।


पर अंग्रेजो को अपना काम करबाने  के लिए व्यक्तियों की भी जरुरत थी मुठ्ठी भर अवसरवादियों की दम पर तो वो अपना राज्य नही चला सकते थे इसलिए उन्होंने सभी निम्न जातियो के लोगो को जिनको हम सब आज दलित अनुसूचित जातीय या हरिजन के नाम से जानते है, सासन से जोड़ना शुरू किया, धन  के आते ही मद और अहंकार भी आता है और धन के जाते ही धन और अहंकार जाता भी है, जहां एक और निम्न जातियो में अहंकार बढ़  रहा था वही धर्मनिष्ठ उच्च जातीय लोगो का धन के आभाव में सामाजिक स्तर खत्म हो रहा था।

अब पंडित जी ठाकुर साब बस नाम भर के थे धन और पद नही तो रुतवा भी नहीं और वही जिन दलित वर्ग के लोगो को धन और पद मिल रहा था वो आवश्यकता से ज्यादा दिखावा कर रहे थे और उनके अपने लोग उनकी इस उन्नति से काफी खुस और उत्साहित थे, पर जब दलितों का एक वर्ग बढ़ रहा था तभी उनके वर्ग के अंदर एक आंतरिक प्रतिपर्धा शुरू हो गयी।

मतलब जो लोग पद और धनाढ्य थे वो ये चाहने लगे की अब ये सुविधाएं हमारी पुश्तेनी हो जाये, पहले जहां संयुक्त परिवार थे अब वो भी विखंडित होने लगे, और अपना अलग रहने लगे उनको अपने परिवार  सदस्योही से कोई मतलब नही रहता था , पर उनको भी अंग्रेजो की तरह आतंरिक आंदोलन से डर लगता था इसलिए जब भी वो अपने परिवार और जात  भाईयो से मिलते ऊँची जाती के लोगो के बारे में जहर ही उगलते रहते जिससे इस वर्ग के बाकि लोगो को यही लगता रहा की आज भी उनके दुश्मन ऊँची जाती के लोग है और यही उनकी उन्नति में बाधक है, और हमारे परिवार का एक व्यक्ति ने इनके बीच अपनी पहचान बनायीं है इसलिए हमारा आदमी इनको खटकता है और अनेको तरह से इसको परेशान  करते है, ये लोग वास्तव में बहुत ही भोले थे और जो इनके संबंधी थे उनको अवसरवादी ऊँची जाती के लोगो से यदि सीखने को मिला और वो सीख भी गए।

इसलिए हमारे समाज के ज्यादातर ऊँची जाती के समाज सुधारको ने दलितों के उद्धार के लिए कई आंदोलन चलाये, आज़ादी के बाद कई योजनाए बनायीं पर सामाजिक आंदोलन को दलितों के अपने ही अवसरवादी जाती भाईओ ने सफल नही होने दिया क्योंकि ये अवसरवादी लोग अपनी मांगे मनवाने के लिए अपने वास्तविक दलित भाईओ को एक मुफ्त की भीड़ के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है और उनके नाम पर मिलने वाली सुविधाओ को उनकी जाती का होने के कारण खुद इस्तेमाल करना चाहती है।

आज जो दलित आईएएस, मंत्री, या केसा भी अफसर है वो भी चाहता है की उसके बेटे को sc  सीट में दाखिल मिल जाये, जबकि वो सम्पन्न चाहे तो इस लाभ को छोड़ कर अपने दूसरे जाती भाईओ का हित  कर सकता है, क्योंकि दलितों या पिछडो  बानी योजनाए किसी भी स्तिथि में ऊँची जाती का व्यक्ति नही ले सकता और न ही ऐसा है की देश के सारे दलित और पिछड़े वास्तव में पुरे गरीब है, इनमे भी बहुत से लोग प्रतिस्ठित और धनि है, अच्छे पदों पर है वो भी अपने दलित भाईओ के लिए कुछ नहीं करते, उनमे ऊँची जाती के लोगो से नफरत छोड़ खुद मेहनत करके आगे बढ़ने की प्रेरणा नही जागते, क्योंकि वो लोग इनका इस्तेमाल एक भीड़ के रूप में करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते है। 

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