भारत के संबिधान के उद्देशिका का वास्तविक अर्थ
भारत का सम्बिधान हम सब भारतीयों को पढ़ना चाहिए, समझना चाहिए और हो सके तो उसमे लिखी बातो को सामाजिक स्तर पर देखते भी रहना चाहिए, की क्या वे वैसे ही हो रही है जैसी होनी चाहिए या जैसे संबिधान में वर्णित है, आज काफी दिनों के बाद मेने सोचा की सम्बिधान की उद्देशिका जिसे हर व्यक्ति पढता है उसका वास्तिक अर्थ का विवेचना की जाये, हमारे सम्बिधान की उद्देशिका कहती है की:
हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिको को सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विस्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने दृढ़संकल्प होकर( ...... ) इस सम्बिधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते है।
आईये सब इस सम्बिधान के एक एक भाग को विस्तार से देखा जाये, और समझते है की ये कितना सही से समझ में चल रहा है.
भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न: कहने को भारत प्रभुत्व ,पर क्या चीन और पाकिस्तान की हरकतों के लिए हम उसको वैसे जबाब दे पाते है जैसे अमेरिका, रूस, दे सकते है, हमे अंतराष्ट्रीय विरादरी की ज्यादा चिंता करनी पढ़ती है क्योंकि हमने अभी तक अपनी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर नही बना पाया, और बनाते भी कैसे, देश की राजनीतिक ईक्षाशक्ति ही नहीं हुयी की हम अपने संसाधनों को सही तरीके से सुनियोजित करके आत्मिर्भर बन सके।
समाजवादी: समाजवाद शब्द रुसी क्रांति से निकला था वो भी जार शासन का अंत होने के बाद, समाजवाद का वास्तविक मतलब है की समाज के सभी वर्गों के लोगो को सरकार सिर्फ ही मान्यता दे और वो हो नागरिक, न की सामान्य, पिछड़ा, अति-पिछड़ा,दलित, अति-दलित इत्यादि के रूप में, क्योंकि अगर सरकार स्वयं इसतरह से अपने नागरिको का विभाजन करती है तो समाजवाद की अवधारणा नगण्य ही है, क्योंकि ये समाजवाद की पहली शर्त ही पूरी नही कर पा रही है।
पंथनिरपेक्ष: जब देश पंथ निरपेक्ष है तो यहाँ पर अल्पसंख्यक जैसे किसी भी वर्गीकरण का कोई स्थान होना ही नही चाहिए था, पंथनिरपेक्ष का मतलब सीधा स है की हर धर्म के लोगो के लिए सामान नागरिक संहिता, किसी को अनुदान नही किसी से टैक्स नही, किसी को संरक्छन नही किसी का दमन नही, सबके लिए समान, पर क्या ये है, अल्पसंख्यक के नाम पर अनुदान दिए जाते है, हज यात्रा पर सब्सिडी दी जाती है, मंदिरो से टैक्स लिया जाता है मस्जिदों और गिरिजाघरो को सस्ते दामो पर जमीन दी जाती है, यानि की इसके पंथनिरपेक्ष की अवधारणा भी व्यवहारिक न होकर सिर्फ किताबी ही है।
लोकतान्त्रिक गणराज्य : लोकतंत्र का सबसे पहला मतलब होता है सत्ता हर हाल में जनता के हाथ में, पर यहाँ पर जन प्रतिनिधि चुने जाने के बाद जन-प्रतिनिधि न होकर माननीय और कानून-निर्माता बन कर अपने फायदे बना लेते है, अपने वाहनों पर बत्ती लगा लेते है, आने जाने के लिए आम जनता को रोक कर इनको जाने दिया जाता है, और सबसे बड़ी बात, अंग्रेजो के जाने के बाद उनकी जगह राजनीतिक घरानों ने ले ली है, और उनके वर्चस्व के आगे अगर एक आम व्यक्ति खड़ा भी होना चाहे तो उस राजनीतिक घराने के लोग आपको थोक के भाव ठोक देंगे, सही सही अर्थो में लोकतंत्र है ही नही, क्योंकि जनता वोट जाती और धर्म के नाम देते है, पौआ और रूपये लेकर वही वोट डाल देते है जहा बताया जाता है, क्योंकि वोट देने वाली जनता आज भी अनपढ़ और गैर-जागरूक है, और राजनेतिक लोग उनकी जरूरते जानते है इसलिए चुनाव के समय वैसे ही वादे करते है, और जागरूक जनता के वोट की कोई कीमत नही है, क्योंकि ये बिखरा हुआ है।
समस्त नागरिको को सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विस्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने :
शब्द पढ़ने में बड़े ही बढ़िया लगते है, उदार लगते है, महत्वपूर्ण लगते है पर वास्तव में ऐसा नही है, क्या समस्त नागरिको को न्याय मिल जाता है,क्या सभी लोगो की आर्थिक जरूरते पूरी हो रही है, क्या सभी को किसी प्रकार राजनयिक न्याय मिल जाते है, आज अगर किसी विधायक या सांसद होती भी है तो उसे VIP सुविधाएं मिलेगी, वो जमानत लेकर अपनी पार्टी का प्रचार कर सकता है, पर क्या एक १०० रूपये चुराने वाले को देश का कानून इतनी छूट देगा, नही देगा।
आज देश में एक वर्ग ऐसा है जो मंदिर में बैठे भगवान पर आरोप लगा सकता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर और दूसरा वर्ग उसका विरोध भी नही कर सकता, क्योंकि उसका विरोध करना उसका सामंतवादी स्वाभाव मन जायेगा।
एक वर्ग को कार्यालय से नवाज के लिए छुट्टी मिल सकती है, वो टोपी पहन सकता है, पर दूसरा वर्ग अगर तिलक लगा कर भी आएगा तो उसके मजाक बनाये जाने की सम्भवना है, धार्मिक काम के लिए उसे व्यक्तिगत अवकास लेना पड़ेगा वो भी उसके अधिकारी की इक्षा पर निर्भर है।
अब बात करते है प्रतिष्ठा और अवसर की समता कुछ लोग जाती, धर्म और लिंग का आधार पर दिए जाने वाले आरक्छन इस जोड़कर सही मानते है, पर उस वर्ग का क्या है जिसको इन्ही कारणों से बाहर किया जाता है, अवसर की समानता भी राजनीतिक समानता जैसी ही होनी चाहिए, की कोई भी किसी भी सेवा में भाग ले सके, अपनी काबिलियत के अनुसार पद प्राप्त कर सके, पर आरक्छन देकर देकर व्यावहारिक रूप से संबिधान ने अयोग्य लोगो को योग्य पर बैठाने की कबायत कर दी है, हो सकता है कुछ लोगो कर तर्क हो की इन वर्गों के लोग गरीब होते है, तो क्या सामान्य वर्ग के सभी लोग अमीर होते है, वो भी गरीब होते, उनका क्या होगा, और आरक्छन में [१] फीस में [२] आयु में छूट [३] अवसरों की ज्यादा संख्या [४] आने जाने का किराया [५] नम्बरो में भी छूट और पढ़ाई के लिए कभी मुफ्त की चीजे, चलो आपको लगता है की गरीब है तो [२] आयु [५] नम्बरो में छूट छोड़ कर बाकि सुविधाएं देदो, और जो लोग आगे निकले उनको अवसर दो, क्योंकि अगर देश का संबिधान ऐसा भेदभाव करेगा तो व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने तो एक वर्ग के व्यक्ति की गरिमा का धीरे धीरे हनन होने लगेगा, वो अलगाववाद की तरफ बढेगा जैसे आज नक्सली लोग लड़ रहे है, और ये देश की अखण्डता को प्रभावित करेगी, और सबसे बड़ा मुद्दा जो अभी दिख रहा है देश के नागरिको में बंधुत्व कम हो रहा है, क्योंकि स्वाभाव से प्रत्येक प्राणी अपना हित चाहता है, जब हित साधन पूर्ण होता है तो उदारता भी आती है और घमंड भी, और जब हित पूरा नही होता है तो कुंठा भी होती है और जिनका हित पूरा हो जाता है उनसे द्वेष भी होता है, इधर का द्वेष और उधर का घमण्ड एक-दूसरे के बीच बंधुत्व जैसी किसी भी बात को पनपने नही देती।
हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिको को सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विस्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने दृढ़संकल्प होकर( ...... ) इस सम्बिधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते है।
आईये सब इस सम्बिधान के एक एक भाग को विस्तार से देखा जाये, और समझते है की ये कितना सही से समझ में चल रहा है.
भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न: कहने को भारत प्रभुत्व ,पर क्या चीन और पाकिस्तान की हरकतों के लिए हम उसको वैसे जबाब दे पाते है जैसे अमेरिका, रूस, दे सकते है, हमे अंतराष्ट्रीय विरादरी की ज्यादा चिंता करनी पढ़ती है क्योंकि हमने अभी तक अपनी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर नही बना पाया, और बनाते भी कैसे, देश की राजनीतिक ईक्षाशक्ति ही नहीं हुयी की हम अपने संसाधनों को सही तरीके से सुनियोजित करके आत्मिर्भर बन सके।
समाजवादी: समाजवाद शब्द रुसी क्रांति से निकला था वो भी जार शासन का अंत होने के बाद, समाजवाद का वास्तविक मतलब है की समाज के सभी वर्गों के लोगो को सरकार सिर्फ ही मान्यता दे और वो हो नागरिक, न की सामान्य, पिछड़ा, अति-पिछड़ा,दलित, अति-दलित इत्यादि के रूप में, क्योंकि अगर सरकार स्वयं इसतरह से अपने नागरिको का विभाजन करती है तो समाजवाद की अवधारणा नगण्य ही है, क्योंकि ये समाजवाद की पहली शर्त ही पूरी नही कर पा रही है।
पंथनिरपेक्ष: जब देश पंथ निरपेक्ष है तो यहाँ पर अल्पसंख्यक जैसे किसी भी वर्गीकरण का कोई स्थान होना ही नही चाहिए था, पंथनिरपेक्ष का मतलब सीधा स है की हर धर्म के लोगो के लिए सामान नागरिक संहिता, किसी को अनुदान नही किसी से टैक्स नही, किसी को संरक्छन नही किसी का दमन नही, सबके लिए समान, पर क्या ये है, अल्पसंख्यक के नाम पर अनुदान दिए जाते है, हज यात्रा पर सब्सिडी दी जाती है, मंदिरो से टैक्स लिया जाता है मस्जिदों और गिरिजाघरो को सस्ते दामो पर जमीन दी जाती है, यानि की इसके पंथनिरपेक्ष की अवधारणा भी व्यवहारिक न होकर सिर्फ किताबी ही है।
समस्त नागरिको को सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विस्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने :
शब्द पढ़ने में बड़े ही बढ़िया लगते है, उदार लगते है, महत्वपूर्ण लगते है पर वास्तव में ऐसा नही है, क्या समस्त नागरिको को न्याय मिल जाता है,क्या सभी लोगो की आर्थिक जरूरते पूरी हो रही है, क्या सभी को किसी प्रकार राजनयिक न्याय मिल जाते है, आज अगर किसी विधायक या सांसद होती भी है तो उसे VIP सुविधाएं मिलेगी, वो जमानत लेकर अपनी पार्टी का प्रचार कर सकता है, पर क्या एक १०० रूपये चुराने वाले को देश का कानून इतनी छूट देगा, नही देगा।
आज देश में एक वर्ग ऐसा है जो मंदिर में बैठे भगवान पर आरोप लगा सकता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर और दूसरा वर्ग उसका विरोध भी नही कर सकता, क्योंकि उसका विरोध करना उसका सामंतवादी स्वाभाव मन जायेगा।
एक वर्ग को कार्यालय से नवाज के लिए छुट्टी मिल सकती है, वो टोपी पहन सकता है, पर दूसरा वर्ग अगर तिलक लगा कर भी आएगा तो उसके मजाक बनाये जाने की सम्भवना है, धार्मिक काम के लिए उसे व्यक्तिगत अवकास लेना पड़ेगा वो भी उसके अधिकारी की इक्षा पर निर्भर है।
अब बात करते है प्रतिष्ठा और अवसर की समता कुछ लोग जाती, धर्म और लिंग का आधार पर दिए जाने वाले आरक्छन इस जोड़कर सही मानते है, पर उस वर्ग का क्या है जिसको इन्ही कारणों से बाहर किया जाता है, अवसर की समानता भी राजनीतिक समानता जैसी ही होनी चाहिए, की कोई भी किसी भी सेवा में भाग ले सके, अपनी काबिलियत के अनुसार पद प्राप्त कर सके, पर आरक्छन देकर देकर व्यावहारिक रूप से संबिधान ने अयोग्य लोगो को योग्य पर बैठाने की कबायत कर दी है, हो सकता है कुछ लोगो कर तर्क हो की इन वर्गों के लोग गरीब होते है, तो क्या सामान्य वर्ग के सभी लोग अमीर होते है, वो भी गरीब होते, उनका क्या होगा, और आरक्छन में [१] फीस में [२] आयु में छूट [३] अवसरों की ज्यादा संख्या [४] आने जाने का किराया [५] नम्बरो में भी छूट और पढ़ाई के लिए कभी मुफ्त की चीजे, चलो आपको लगता है की गरीब है तो [२] आयु [५] नम्बरो में छूट छोड़ कर बाकि सुविधाएं देदो, और जो लोग आगे निकले उनको अवसर दो, क्योंकि अगर देश का संबिधान ऐसा भेदभाव करेगा तो व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने तो एक वर्ग के व्यक्ति की गरिमा का धीरे धीरे हनन होने लगेगा, वो अलगाववाद की तरफ बढेगा जैसे आज नक्सली लोग लड़ रहे है, और ये देश की अखण्डता को प्रभावित करेगी, और सबसे बड़ा मुद्दा जो अभी दिख रहा है देश के नागरिको में बंधुत्व कम हो रहा है, क्योंकि स्वाभाव से प्रत्येक प्राणी अपना हित चाहता है, जब हित साधन पूर्ण होता है तो उदारता भी आती है और घमंड भी, और जब हित पूरा नही होता है तो कुंठा भी होती है और जिनका हित पूरा हो जाता है उनसे द्वेष भी होता है, इधर का द्वेष और उधर का घमण्ड एक-दूसरे के बीच बंधुत्व जैसी किसी भी बात को पनपने नही देती।
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