हम ऊँची जाती के लोग

हम ऊंची जाती के लोगो के एक बहुत बड़ी समस्या ये है की अगर अपने ऊपर हो रहे अन्याय को अन्याय कहने लगे तो जैर ऊँची जातीय लोग कहते है की सामंतवादी सोच त्यागो अब लोक तंत्र  है,  अगर कोई गैर ऊँची जाती का व्यक्ति आप से अकड़ जाये तो तो ये उसका स्वाभिमान है और जागरूकता है, पर हम ऊँची जाती के लोग अकड़ जाये तो कहा जाता है की रस्सी जल गयो पर बल नही गया, अगर कोई गैर ऊँची जाती का व्यक्ति ज्यादा ऊँचे बोल बोले तो उसका आत्मविस्वास और सर उठा कर जीने का अधिकार है, और हम ऊँची जाती के लोग बोले तो घमंडी और अद्भिमानी कहे जाते है, पता नहीं इस तरह के भेदभाव पर लोग चुप्पी को साधे हुए है.

चुप्पी इसलिए साधे हुए है क्योंकि समय नही है उलझने का, दो वक्त की रोटी और सम्मान से जीने की चाहत ने पीस कर रख दिया है, सरकार आती है जाती है, जितनी भी योजनाए और वादे करती है गरीबो, दलितों, पिछडो महिलाओ और मुसलमानो के नाम से की जाती है, सरकार को ऊँची जाती के अंदर कोई गरीब नहीं दीखता और दलितों, पिछडो और मुसलमानो में कोई अमीर नहीं दीखता, इसलिए योजनाए बनती है और गरीबी है की खत्म होने का नाम नही लेती।


अब प्रश्न ये है की क्या ऊँची जाती के लोगो के सभी पूर्वज क्रूर थे, जिन्होंने निम्न जातीय लोगो को बढ़ने नही दिया या निम्न जातीय लोगो की अकर्मण्यता थी जी जिसने इनको बढ़ने नहीं दिया, ये बहस का मुद्दा नहीं बल्कि सोचने का है, अगर आप किसी भी निम्न जातीय व्यक्ति से पूछो की क्या उसके पूर्वजो पर अत्याचार हुआ है, तो उसकी नजर में सभी सवर्ण अत्याचारी है वो चाहे ब्राह्मण हो, बनिया हो ठाकुर हो या कायस्थ हो, सबने उसके पूर्वजो पर जुल्म किया, पर क्या ये सही हो सकता है, नही हो सकता, हजारो की जनसँख्या में कोई एक जमींदार अत्याचारी होता होगा, जिसका हो सकता है सजयदतर समकालीन उच्च जातीय जमींदारों ने विरोध भी किया हो, या ये हो सकता हो की कामगार मजदूरो को ज्यादा सुविधाएं इसलिए न दी जाती हो की शरीर को एक बार आराम की लत लग जाये तो फिर उस शरीर से काम नही होता, ये हालात तो लोकतंत्र में भी है हमारे सेनिको और पुलिस के जवानों को देख लो, भरी धुप में रेगिस्तान में या शहर में बिना पंखे की गाड़ी में घूमते है, सर्दियों में भी पुलिस की गाड़ी के खिड़किया खोल कर रखना पड़ता है, तो ये जुल्म नहीं है, वल्कि काम के जरुरत है, जो उस समय रही होगी, हर काम का वेतन और सम्मान होता था और आज भी है, और आने वाले समय में भी रहेगा।

मेने कई बार दलित लेखको और विचारको से कहा की बजाये सभी सवर्णो को गरियाने के, आप उन लोगो की सूचि बनाओ जिन्होंने जुल्म किया, अत्याचार किया और उनको गरियाओ तो उनका एक ही जबाब, सभी है, ऐसे कैसे पहचाने, ये तो खून में ही जुल्म लिए पैदा होते है, तो मेने भी इसका एक काट खोज, मेने हर जाती के आधार पर नौकरियों में आरक्छन पाने वाले को धूर्त और अकर्मण्य, बुध्दिहीन, ज्ञानहीन, मतलब मान कर चलने लगा की उनके अंदर कोई काबलियत नही है, अब वही लोग मुझे जातिवादी, सामंतवादी कहने लगे,कहने लगे मेरी सोच ख़राब है,क्योंकि ज्ञान किसी जाती के अधीन नही है, कोई भी हो सकता है, यही पर मेने बोला भाई जैसे ज्ञान जातिवन्धन से मुक्त है वैसे ही जुल्म और अत्याचार भी जाती बंधन से मुक्त है, जुल्मी और अत्याचारी कोई भी हो सकता है, जिसे  भी सत्ता से अधिकार, सहयोग या सत्ता प्राप्त है वो अत्याचारी हो सकता है, आज के समय में सत्ता का सहयोग दलितों और पिछडो के साथ है, इसलिए वो भी अत्याचार करते है, उनके करने का तरीका अलग है, ये दीखता नही है पर करते तो वो भी है, आज आज़ादी के ७० सालो के बाद भी ये लोग जाती के आधार पर आरक्छन की मलाई खा रहे है तो ये भी तो उन मेधावी लोगो पर अत्याचार ही है जो इनसे ज्यादा योग्य है और इनसे कम संसाधनों में पढ़े.


जातिगत आरक्छन का लाभ उस व्यक्ति को नही मिल रहा जिसको मिलना चाहिए, वल्कि इसका फायदा वो लोग ले रहे है जो संपन्न है, सवर्णो के बीच काम कर रहे है, रहना, उठना बैठना सब सही है पर है दलित जाती के, जिनको देख कर आपको किसी भी तरफ से नही लगेगा की ये दलित है, चाहे पढ़ाई लेलो, समाज में सम्मान लेलो या धन सम्पदा लेलो, तो ये भी एक मानसिक अत्याचार ही है, खुद दोषी है वास्तविक दलितों और पिछडो के पिछड़ेपन  के और दोषी हम ऊँची जाती के लोगो को ठहराते है, ये भी एक तरह का मानसिक उत्पीड़न ही है हम ऊँची जाती के लोगो का.

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