हम लोग और वो लोग अलग है


आजकल मीडिया में बेंगलोर, कर्नाटक की घटना जो की नव वर्ष में घटित हुयी है छायी हुयी है, इसमें जिनका दोष है वो कांड करके निश्चिन्त होकर सो गए है और सोशल मीडिया में, अखबारों में समस्त पुरुष समुदाय को गालिया दी जा रही है,  यहाँ एक प्रश्न पूछना चाहिए की ये कर्म करने वाले लोग क्या थे, ये सब उनके ही साथी थे या बाहर से आये थे,  कोई भी हो सकते है पर उनका उनलोगों से कोई लेना देना नही है जो सोशल मीडिया पर बैठ कर गालिया खा रहे है, क्योंकि एक प्राचीन कहावत है की जो बुरा काम करता है वो चौकन्ना रहता है और कांड करके भाग जाता है और फसता वो है जिसका कांड से कोई लेना देना नही होता बस किसी कारणवस मौका ऐ वारदात पर पकड़ा जाता है, थोड़ा सोचने की बात है जिसने गलत काम किया है वो तो कांड करके भाग जायेगा और जिसे कांड का पता नही है वो निश्चिन्त होकर वही बना रहेगा, यही होता है जिसने कांड किया वो काफी दिनों तक नजर भी नहीं आएगा वल्कि खुश होगा की कांड मेने किया गालिया बाकि के लोग खा रहे है, ये घटनाये दिल्ली, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में काफी ज्यादा होती है, ये तो हुयी एकतरफा बात जिसे मेने अपने अनुभव के आधार पर बताया, अब दूसरे तरफ भी ध्यान देते है।

आजकल लड़के और लड़कियों की दोस्ती को उनके परिवार के लोग भी सहर्ष एक दोस्ती के रूप में स्वीकार कर लेते है, अब माता पिता भाई ९० के दशक की तरह लड़के और लड़कियों की दोस्ती देख कर ज्यादा आगे का सोच कर किसी भी तरह का परिबंध नही लगाते वल्कि इस नए रिश्ते को स्वीकार करके उदारवाद का परिचय देते है, लड़को में भी कई वर्ग है एक वर्ग है जिसे अपनी पढ़ाई ही सर्वोपरि दिखती है दूसरा वर्ग लड़कियों से दोस्ती को प्राथमिकता देता है, उनके पास खुले विचार होते है समय होता है लड़कियों को समझने का वही दूसरी ओर पढ़ने वाले के पास समय नही होता और न ही उतने खुले विचार होते है, क्योंकि उसका मानना होता है की ज्यादा दोस्ती समय की बर्बादी ही का कारण बनेगी, क्योंकि दोस्ती होगी तो घूमना भी पड़ेगा, कुछ कहना भी पड़ेगा और सुनना  भी पड़ेगा तो बेहतर है दूर रहो, ऐसे लोगो के दोस्त बहुत कम होते हौर इनके जैसे ही होते है, कपडे पहनने से लेकर विचारो और बाकि कामो  इनका एक अपना मात्रक है जो इनको दूसरे शब्दो में उबाऊ, पढ़ाकू, इत्यादि नामो का धारणकर्ता बना देता है, पर देश और बड़ी बड़ी कंपनिया यही लोग आगे चलकर चलाते है, और दूसरे वर्ग के लोग इनके बनाये नियमो पर चल कर अपनी रोजी रोटी कमाते है।


दोस्ती के कई आयाम है जिनमे खुलापन बहुत आम है और ये खुला पन एक तरफ स्त्री पुरुष की शारीरिक संरचना के आधार पर भेदभाव को वरीयता नही देता, जैसा व्यवहार पुरुष मित्रो के साथ वैसा ही महिला मित्र के साथ, पर प्रकृति ने जो भेदभाव किया है वो कही न कही नजर आ ही जाता है, आज जो लोग महिलाओ के साथ बुरा वर्ताव करते है या उनके साथ बत्तमीज़ी करते है हो सकता है जिस समय वो कर रहे हो उस समय उनको ये पता भी न हो की वो गलत कर रहे है क्योंकि करने वाले ज्यादातर उनके अपने रोज के उठने बैठने खाने पिने वाले दोस्त ही होते है, और आज देश के किसी भी पाठ्यक्रम में ये बताया नही जाता की स्त्री पुरुष को एक दूसरे से कैसा वर्ताव करना चाहिए और सच मानिये अगर ऐसा कोई पाठ्यक्रम बनाया भी गया तो देश का बुद्धिजीवी वर्ग खुद आगे आकर कहेगा की अब सरकार हमे न बताये के केसा व्यव्हार करना है, खुलापन कब नंगेपन में बदलने लगा और स्वतंत्रता कब स्वछंदता बन गयी किसी को पता नही चला, पर हर हाल में दोष पुरुष पर ही मढ़ा जायेगा, अगर कुछ ज्यादा बचाव में बोला तो एक मात्रा प्रश्न जो हर पुरुष को निरुत्तर करदेगा, अगर तुम्हारी बहिन बेटी के साथ कोई ऐसा करता तब भी क्या तुम यही कहते, बस बोलती बन्द, आज के हालातो के लिए हम सिर्फ पुरुष को १००% दोषी नही ठहरा सकते है ५०-५० का मानक ठीक रहेगा।  

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