ये तो हम सभी जानते है की भारत के संबिधान का जन्म ऍंगरेजों के बनाये हुए भारत सरकार शासन अधिनियम १९३५ से हुआ है, और जिन लोगो ने संबिधान का निर्माण किया है उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती सरकारो की आलोचना भी की, अखबारों में भी लिखा और नारेबाजी, धरना सबकुछ किया, तो उन्होंने एक सोच को जन्म दिया, की देश के नागरिक को निडर होकर अपनी बात कहने का अधिकार होना चाहिए, तभी एक स्वस्थ शासन की नींव राखी जा सकती है, और सर्व सम्मति से 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में डाल दिया गया, और ये एक ऐसा अधिकार था जो व्यक्ति को न सिर्फ कहने का अधिकार देता है वल्कि अपने विचारो को और सूचनो को भी इधर उधर भेज सकता है, इसे मौलिक अधिकाओ में १९(१) में रखा गया है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग
आज हम सभी कुछ समय से देख रहे है की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस अधिकार का भरपूर दुरुपयोग हो रहा है, उसमे कश्मीर की आज़ादी की बात JNU/DU केम्पस से होना, भारत तेरे टुकड़े होना और चुने हुए प्रधानमंत्री को मौत का सौदागर कहना, गधा कहना, हिटलर तानासाह, ट्विटर राजा कहना और भी बहुत सी बाते है, अब जिस अधिकार के तहत लोग ये बाते कहते है उसी अधिकार के अंतर्गत देशप्रेमी और मोदी प्रेमी भी इनको आड़े हाथो लेते है, और बस इसी बात को असहिस्णुता और लोक तंत्र की हत्या जैसे भरी भरकम वाक्यो से शुसोभित कर दिया जाता है, जो की गलत है, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सबके पास है, अगर किसी बात को तर्कपूर्ण ढंग से आलोचना करना आपका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है तो उस आलोचना की आलोचना करना किसी और की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। अब मकबूल हुसेन इस स्वतंत्रता में हिन्दू देवी देवताओ के अश्लील चित्र बनाते थे एयर उसका विरोध होगा ही, जिसके होने पर लोग कहते ये भगवा आतंकवाद है, तो भगवा आतंकवाद का जन्म तो इसी अधिकार का अंग है, अपने चित्र बनाये आपका अधिकार था, हमने आपको कूट दिया ये हमारी अभिव्यक्ति है, फिर हमे गलत क्यों कहा जाये।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा तय हो
मेरे विचार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा तय होनी चाहिए, आखिर हम एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे है, यहाँ भिन्न भिन्न जातियो, धर्मो और आस्थाओ के लोग रहते है, इसलिए हमे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत ये सोच कर बोलना चाहिए की कही हमारी कहि बात किसी का दिल न दुख दे, कही किसी की आस्थाओ और संस्कारो को चोट तो नहीं पंहुचा रहा है, क्योंकि एक बार अगर गलत परंपरा शुरू होती है तो फिर आप दूसरे को भी इस अधिकार के दुरूपयोग से रोक नहीं सकते, इसके लिए कोई सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा तय नहीं कर सकती, ये हम नागरिको को खुद ही सोचना और समझना पड़ेगा। क्योंकि अगर हम नही सोचेगे तो ये अधिकारो का मामला है कोई भी अपने अधिकार नहीं छोड़ेगा और बात गृहयुद्ध तक चली जाएगी या वर्ग संघर्ष।
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