भारतीय समाज में संतान और उसके दायित्व
भारत का समाज बाकि दुनिआ के समाजो से पूरा अलग तो नहीं है, पर कुछ अलग जरूर है, आज के वातावरण में एक ऐसा आंदोलन चला है जिसमे बहुत सारे बुद्दिजीवी वर्ग ये साबित करने में लगे है की घर में बेटी का जन्म बहुत ही पुण्य उदय के बाद होता है और बेटो का जन्म तो सामान्य है।
इक इतना बड़ा दबाब है की दंपत्ति के लिए पुत्र के जन्म पर उत्साह दिखाना भी मुश्किल हो जाता है, क्युकी उनको डर लगता है की कही कोई ताना न मार दे की बेटा हुआ है इसलिए ज्यादा खुश है अभी बेटी होती तो चेहरा देखने लाइक होता, इसलिए बेटे होने की या यूँ कहे की संतान होने की ख़ुशी भी नहीं मना पता है।
वही बेटी होने पर भले ही समर्थ हो या न हो धन हो या न हो पर देखावे के लिए उतसव का आयोजन करता है, वह भी डर के कारन की कही कोई ये न कह दे की बेटी हुयी है इसलिए कुछ नहीं कर रहे है, अगर बेटा होता तो अभी लड्डू बंट रहे होते, कुलमिलाकर समाज का एक अदृश्य डर हर दंपत्ति के दिमाग पर बैठा हुआ है।
अब आईये देखे की समाज में बेटे के जन्म पर
इक इतना बड़ा दबाब है की दंपत्ति के लिए पुत्र के जन्म पर उत्साह दिखाना भी मुश्किल हो जाता है, क्युकी उनको डर लगता है की कही कोई ताना न मार दे की बेटा हुआ है इसलिए ज्यादा खुश है अभी बेटी होती तो चेहरा देखने लाइक होता, इसलिए बेटे होने की या यूँ कहे की संतान होने की ख़ुशी भी नहीं मना पता है।
वही बेटी होने पर भले ही समर्थ हो या न हो धन हो या न हो पर देखावे के लिए उतसव का आयोजन करता है, वह भी डर के कारन की कही कोई ये न कह दे की बेटी हुयी है इसलिए कुछ नहीं कर रहे है, अगर बेटा होता तो अभी लड्डू बंट रहे होते, कुलमिलाकर समाज का एक अदृश्य डर हर दंपत्ति के दिमाग पर बैठा हुआ है।
अब आईये देखे की समाज में बेटे के जन्म पर
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