Official Blog of Ambrish Shrivastava: भोजन की बर्बादी - भावनात्मक और तथ्यात्मक अध्ययन

Saturday, April 22, 2017

भोजन की बर्बादी - भावनात्मक और तथ्यात्मक अध्ययन

भोजन की बर्बादी वास्तव में एक बहुत गलत बात है, हमे उतना ही लेना चाहिए जितना हम खा सकते है, खास तौर पर घर में और ऐसी जगहों पर जहाँ पर हमे भोजन खाने के बाद उसका मूल्य नहीं चुकाना पड़ता है, [आप ये वैसे कही भी करें अच्छा ही है ] क्युकी अकसर हम ज्यादा ले तो लेते है पर अगर खा नहीं पाते है तो वो अन्न किसी की भूक मिटा सकता था [वैसे जो भोजन फेका जाता है वो भी मनुस्य का न सही पर किसी न किसी जीव का पेट जरूर भरता है, जैसे कुत्ता, और अन्य पशु।

परन्तु ये जानवर कुछ और भी खा सकते है, इसलिए हो सके तो मनुष्यो के लिए भोजन को मनुष्यो के ही पेट में जाने दे वो भी सही हालत में, क्युकी आपके द्वारा ज्यादा लेकर फेकने के कारण घर में सबसे बाद में खाने वाले को कम पड़ सकता है या फिर किसी समारोह में बाद में खाने वाले को, हो सकता है बाद में खाने वाले वो लोग हो जिनके सहयोग के कारन आपका या आपके मित्र या सम्बन्धी का समारोह ठीक ढंग से सम्पन्न हुआ।


अब मेने होटलो और रेस्टॉरेंट्स में भी यही लिखा देखा है, बात बहुत सही लिखी उन्होंने की उतना ही लो थाली में की व्यर्थ न जाये नाली में और उसमे एक भूखे बच्चे की कटोरा लेकर तस्वीर लगा दी, जिसे देखकर आपका ह्रदय द्रवित हो गया, और अपने पूरा मूल्य देखर खाना कम लिया इस नैतिक भय से की कही थाली में बच न जाये, अपने बिलकुल सही किया, एक सभ्य व्यक्ति को यही करना भी चाहिए, पर क्या जिस उद्देश्य के लिए आपने अपने आप ये त्याग किया वो पूरा हुआ ????????? सोचिये, कुछ पता नहीं है।

इस त्याग का दूसरा अनदेखा पहलु, जिसे आपने कभी नहीं देखा 

आइये एक आपको अपनी आपबीती सुनाता हूँ, में नॉएडा में रहता था, वह पर एक होटल में खाना खाता था, वो २००४ में ४० रूपये में ४ रोटियां, १ दाल, १ सब्जी, पापड़, सलाद और चावल देता था, और ये भावपूर्ण वाक्य उसने लिखे हुए थे, तो में ३ रोटियां ही लेता था और चावल छोड़ देता था, पर उसके लिए वो कुछ भी कम नहीं करता था, मेने कहा भी की आप मुझसे ३० रूपये ले लिया करो, तो उसका जबाब था, सर जी ४० रूपये भरपेट भोजन के है, ये तो एक मानक सेट किया है, इतने में पेट भर ही जाता है, आपका भी भर जाता है तभी तो आप कम लेते हो, न भरता तो कम क्यों लेते, लेकिन अगर आपने १ रोटी ज्यादा ली तो ५ रूपये लगते थे।


एक दिन जब में नॉएडा छोड़ कर गुडगाँव जाने लगा क्युकी जॉब वही लगी तो मेने उससे पूछ ही लिया की आपने जो ये लिखा है, क्या आप शाम को लोगो को मुफ्त भोजन कराते हो, उसने पूछा क्यों कराऊ , मेने कहा मान लो अपने यहाँ पुरे दिन में १०० लोग आते है, वो बोला सब जी २०० से ऊपर आते है, मेने कहा ठीक है, इसमें कितने लोग मेरे जैसे होंगे, बोला आप जैसे मतलब, मेने कहा जो ४ से कम रोटियां लेते हो या चावल न लेते हो, उसने कहा करीबन २०-३० लोग तो होंगे, मेने बहा पर उससे पूछा की अगर मान लो २०० लोग पूरा खाना लेते तो आपकी १ दिन की बिक्री हुयी ८००० की, उनमे से २० लोग ऐसे थे जिन्होंने १ रोटी कम ली, मतलब रोटियों के हिसाब से दाल और सब्जी भी बची होगी, इतने में ६ लोगो को आप मुफ्त खाना खिला सकते हो, क्या अपने पिछले ३ सालो में किसी गरीब को खिलाया, उसने कहा नहीं तो, मेने कहा साहब फिर इस भावपूर्ण आग्रह का क्या मतलब है, जब अपने उस बचे हुए खाने से भी ६ थालिया बना कर चोरी का मुनाफा कमा लिया, ये उन गरीबो का अधिकार था जिनके सकल दिखा कर अपने २४ लोगो से त्याग करबाया है, बात उसको समझ में आ गयी थी, और वो बोले सॉरी साब जी।

दोस्तों,ये था गरीबो के नाम पर भूके लोगो के नाम पर हमसे त्याग करबा कर फायदे का वयवसाय, ये खूब चल रहा है, और ये सफल तभी हो सकता है, जब होटल और रेस्टॉरेंट्स के मालिक अपनी दैनिक इनकम निकाल कर बाकि का भोजन उनको खिला दे जिनको जरुरत है, नहीं तो हम त्याग करेंगे और ये अपनी तिजोरिया भरेंगे। 

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