क्या मार्क्सवाद अंतराष्ट्रीय स्तर पर मर चुका है ?
भारत के लोगो को हर टाइप के मुर्दे धोने की आदत है और हो भी क्यों न यही मुर्दे तो उनकी रोजी रोटी का साधन बन जाते है, क्युकी अगर ये मुर्दे धोने बंद तो रोजी रोटी खत्म, भारत में मार्क्स वाद के नाम राजनैतिक पार्टीआ फलफूल रही है, मीडिया में भी बहुत पैठ है, यहातक की नक्सलवाद भी मार्क्सवादी विचारधारा में बह रहे है, लेकिन क्यों नहीं हम अब उस तरफ देखते है जहांसे ये शुरू हुआ ? क्यों नहीं हम ये देखते है की जिन कई देशो ने पहले इसका समर्थन किया था आज वे इस विचारधारा को पूरी तरह से नकार चुके है।
आये और देखे उस सोवियत रूस का आज अस्तित्व ही नहीं बचा जिसने मार्क्सवाद का पहला प्रयोग किया था. पूर्वी यूरोप के वे देश धूल में मिल गए और कुछ तो गायब हो गए- जहां मार्क्सवादी शासन व्यवस्था थी. पूर्वी जर्मनी, युगोस्लााविया और चेकोस्लोवाकिया जैसे देश नक्शे में नहीं मिलते, जबकि हंगरी-पोलैंड बिल्कुल बदले हुए हैं. कभी अमेरिका को धूल चटाने वाला वियतनाम अब भूमंडलीकृत दुनिया का हिस्सा है. एशिया में चीन का मार्क्सवाद अब बाज़ारवाद से हाथ कमर में डाल करके चल रहा है. भारत में मार्क्सवाद के गढ़ एक-एक कर टूट रहे हैं. बंगाल हाथ से निकल चुका है, केरल में वाम संघर्ष तीखा है और अकेला त्रिपुरा है जिसे सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी बीजेपी जैसी मराठा शक्ति के लिए पानीपत घोषित करने का उत्साह दिखा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्टालिन से लेकर चाउशेस्कू तक- मार्क्सवाद के नाम पर अपराध और लूट की ऐसी भीषण परियोजनाएं चलाई गई हैं जिनका ज़िक्र किसी वास्तविक मार्क्सवादी को शर्मिंदा करता है. बाज़ार की विराट आधुनिक परियोजना में मार्क्सवादी वैचारिकी बीते ज़माने और बीती दुनिया की चीज़ है. इसके अलावा इन दिनों सत्ता द्वारा वे लोग पुरस्कृत किए जा रहे हैं जो मार्क्सवाद ध्वंस के घोषित यज्ञ में लगे हुए हैं। लेकिन मार्क्स और मार्क्सवाद के तथाकथित शव के चारों ओर चल रहे पूंजीवादी प्रेतों के इस उद्धत नृत्य के पार अगर देखें तो कुछ और सच्चाइयां दिखाई पड़ती हैं।
केवल मार्क्स ही नहीं, उन्नीसवीं सदी के कुल जमा तीन ऐसे विचारक हुए जिन्होंने दुनिया के सोचने का ढंग हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया. कार्ल मार्क्स ने शोषण और विषमता की बात की. याद दिलाया कि जो उत्पादन करता है वह सर्वहारा बना हुआ है।
मार्क्स 5 मई 1818 को जन्म हुआ था, सिगमंड फ्रायड 6 मई को- बेशक, मार्क्स की पैदाइश के 38 बरस बाद. लेकिन फ्रायड वह दूसरा चिंतक है जिसने आने वाली पीढ़ीओ के चिंतन पर सबसे गहरा असर डाला मार्क्स 5 मई 1818 को पैदा हुआ था, सिगमंड फ्रायड 6 मई को- बेशक, मार्क्स की पैदाइश के 38 बरस बाद. और तीसरा था डार्विन, डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत ने भी दुुनिया का चिंतन बदलने में अहम भूमिका अदा की।
चलिए आज का विषय अपना मार्क्स की अंतिम यात्रा निकालना है तो वही चलते है, मार्क्सवाद के दबाव में पूंजीवाद ने ख़ुद को कुछ मानवीय बनाने की कोशिश की. मज़दूरी के घंटे, रिटायरमेंट की योजनाएं, सामाजिक सुरक्षा के प्रश्न- यह सब कामकाज की दुनिया में इसी के बाद आए. लेकिन अपनी शर्तो पर काम करने की मजदूरों में एक आदत बन गयी, अब अगर उनको काम करने को बोलो तो हड़ताल करना एक धंदा बन गया, कानपुर जो कभी भारत का मेनचेस्टर कहा जाता था न जाने कितने फैक्ट्रियां इन मार्क्सवादीओ के चक्कर में बंद हो गयी, हजारो मजदुर बेरोजगार हो गए और बेरोजगार लोगो को पेट भरने के लिए लूट पाट करनी पड़ी नतीजा कानून शख्त हुआ तो उनको पकड़ा गया, पकड़ने पर पता चला की सब मजदुर है गरीब है बेरोजगार है और ये विपक्षी पार्टिओ के लिए राजनैतिक मुद्दा बन गया खासतौर से सी.पी.एम. और सीपीआई जैसी पार्टिओ के लिए।
भारत और अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक ही अंतर् सबसे बड़ा है, विकसित देश प्रयोग करते है लेकिन अगर उस प्रयोग से देश की शांति, कानून व्यवस्था या फिर अर्थ व्यवस्था प्रभाबित होती है तो वो लोग उस विचारधारा को तिलांजलि दे देते है परन्तु भारत में एक वर्ग के लिए वो रोजी रोटी का आधार बन जाता जाता है इसलिए यहाँ पर उसको चलाया जाता है और जनता को गुमराह किया जाता है, ये लोग मजदूरों के साथ गलत व्यवहार होने के कारण फैक्ट्रियां बंद करबाते है लेकिन कभी खुद पैसा इकठ्ठा करके उन मजदूरों के लिए कुछ किया, उनके बच्चो को खुद जाकर पढ़ाया, नहीं किया, क्योकि इनको वास्तव में गरीब मजदुर दलित या फिर देश से कोई मतलब नहीं है, इनको तो बस अपनी रोजीरोटी चलनी चाइये और दुसरो की मेहनत से कमाए धन पर कैसे डकैती डाली जाये ये तरकीब सोचनी है।
रूस चीन, वियतनाम, हंगरी पोलेंड इन देशो ने अनुभव किया की इस विचारधारा से एक अभूत बड़ा वर्ग अकर्मण्य हो रहा है,, देश प्रगति में बाधक बन रहे है, देश की अर्थव्यवस्था ख़राब हो रही है, कानून व्यवस्था ख़राब हो रही है और ऐसे देश प्रगति नहीं कर सकता है, तो उन्होंने इस मार्क्सवादी विचारधारा को पूरी तरह से नकार दिया और परिणाम ये है की आज वो देश संपन्न है और भारत आज भी उसी चक्रवयूह में फंसा हुआ है, क्युकी लोगो को समझना चाहिए किसी का कल्याण तबतक नहीं को सकता जब तक वो खुद प्रयास न करे।
दलितों और मजदूरों की यही समस्या है वो अपने कल्याण के लिए आज भी दुसरो का मुँह देखते है और जिनके [पूँजीपतिओ] सहयोग से उनका कल्याण हो सकता है उनको ही वो अपना दुश्मन मान कर अपना, उनका और देश का भी नुकशान करते है, आखिर आपको रोजगार तो पूंजीपति ही दे सकता है, उसके साथ जुड़िए और मेहनत करके अपना उसका और देश का भला करिये, ये द्वेष मर पालिये की आपकी म्हणत का ९०% वो ले जा रहा है, भलाई इसमें है की आप उसके दिए १०% से एक सम्मान की जिंदगी जी सकते है, आपके बच्चे पढ़ सकते है आपको दो वक्त का अच्छा खाना मिल सकता है, इन मार्क्सवादीओ और माउ के चक्कर में समय जा रहा है और आपको सिवाए कुंठा के कुछ नहीं मिल रहा है।
आये और देखे उस सोवियत रूस का आज अस्तित्व ही नहीं बचा जिसने मार्क्सवाद का पहला प्रयोग किया था. पूर्वी यूरोप के वे देश धूल में मिल गए और कुछ तो गायब हो गए- जहां मार्क्सवादी शासन व्यवस्था थी. पूर्वी जर्मनी, युगोस्लााविया और चेकोस्लोवाकिया जैसे देश नक्शे में नहीं मिलते, जबकि हंगरी-पोलैंड बिल्कुल बदले हुए हैं. कभी अमेरिका को धूल चटाने वाला वियतनाम अब भूमंडलीकृत दुनिया का हिस्सा है. एशिया में चीन का मार्क्सवाद अब बाज़ारवाद से हाथ कमर में डाल करके चल रहा है. भारत में मार्क्सवाद के गढ़ एक-एक कर टूट रहे हैं. बंगाल हाथ से निकल चुका है, केरल में वाम संघर्ष तीखा है और अकेला त्रिपुरा है जिसे सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी बीजेपी जैसी मराठा शक्ति के लिए पानीपत घोषित करने का उत्साह दिखा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्टालिन से लेकर चाउशेस्कू तक- मार्क्सवाद के नाम पर अपराध और लूट की ऐसी भीषण परियोजनाएं चलाई गई हैं जिनका ज़िक्र किसी वास्तविक मार्क्सवादी को शर्मिंदा करता है. बाज़ार की विराट आधुनिक परियोजना में मार्क्सवादी वैचारिकी बीते ज़माने और बीती दुनिया की चीज़ है. इसके अलावा इन दिनों सत्ता द्वारा वे लोग पुरस्कृत किए जा रहे हैं जो मार्क्सवाद ध्वंस के घोषित यज्ञ में लगे हुए हैं। लेकिन मार्क्स और मार्क्सवाद के तथाकथित शव के चारों ओर चल रहे पूंजीवादी प्रेतों के इस उद्धत नृत्य के पार अगर देखें तो कुछ और सच्चाइयां दिखाई पड़ती हैं।
केवल मार्क्स ही नहीं, उन्नीसवीं सदी के कुल जमा तीन ऐसे विचारक हुए जिन्होंने दुनिया के सोचने का ढंग हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया. कार्ल मार्क्स ने शोषण और विषमता की बात की. याद दिलाया कि जो उत्पादन करता है वह सर्वहारा बना हुआ है।
मार्क्स 5 मई 1818 को जन्म हुआ था, सिगमंड फ्रायड 6 मई को- बेशक, मार्क्स की पैदाइश के 38 बरस बाद. लेकिन फ्रायड वह दूसरा चिंतक है जिसने आने वाली पीढ़ीओ के चिंतन पर सबसे गहरा असर डाला मार्क्स 5 मई 1818 को पैदा हुआ था, सिगमंड फ्रायड 6 मई को- बेशक, मार्क्स की पैदाइश के 38 बरस बाद. और तीसरा था डार्विन, डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत ने भी दुुनिया का चिंतन बदलने में अहम भूमिका अदा की।
चलिए आज का विषय अपना मार्क्स की अंतिम यात्रा निकालना है तो वही चलते है, मार्क्सवाद के दबाव में पूंजीवाद ने ख़ुद को कुछ मानवीय बनाने की कोशिश की. मज़दूरी के घंटे, रिटायरमेंट की योजनाएं, सामाजिक सुरक्षा के प्रश्न- यह सब कामकाज की दुनिया में इसी के बाद आए. लेकिन अपनी शर्तो पर काम करने की मजदूरों में एक आदत बन गयी, अब अगर उनको काम करने को बोलो तो हड़ताल करना एक धंदा बन गया, कानपुर जो कभी भारत का मेनचेस्टर कहा जाता था न जाने कितने फैक्ट्रियां इन मार्क्सवादीओ के चक्कर में बंद हो गयी, हजारो मजदुर बेरोजगार हो गए और बेरोजगार लोगो को पेट भरने के लिए लूट पाट करनी पड़ी नतीजा कानून शख्त हुआ तो उनको पकड़ा गया, पकड़ने पर पता चला की सब मजदुर है गरीब है बेरोजगार है और ये विपक्षी पार्टिओ के लिए राजनैतिक मुद्दा बन गया खासतौर से सी.पी.एम. और सीपीआई जैसी पार्टिओ के लिए।
भारत और अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक ही अंतर् सबसे बड़ा है, विकसित देश प्रयोग करते है लेकिन अगर उस प्रयोग से देश की शांति, कानून व्यवस्था या फिर अर्थ व्यवस्था प्रभाबित होती है तो वो लोग उस विचारधारा को तिलांजलि दे देते है परन्तु भारत में एक वर्ग के लिए वो रोजी रोटी का आधार बन जाता जाता है इसलिए यहाँ पर उसको चलाया जाता है और जनता को गुमराह किया जाता है, ये लोग मजदूरों के साथ गलत व्यवहार होने के कारण फैक्ट्रियां बंद करबाते है लेकिन कभी खुद पैसा इकठ्ठा करके उन मजदूरों के लिए कुछ किया, उनके बच्चो को खुद जाकर पढ़ाया, नहीं किया, क्योकि इनको वास्तव में गरीब मजदुर दलित या फिर देश से कोई मतलब नहीं है, इनको तो बस अपनी रोजीरोटी चलनी चाइये और दुसरो की मेहनत से कमाए धन पर कैसे डकैती डाली जाये ये तरकीब सोचनी है।
रूस चीन, वियतनाम, हंगरी पोलेंड इन देशो ने अनुभव किया की इस विचारधारा से एक अभूत बड़ा वर्ग अकर्मण्य हो रहा है,, देश प्रगति में बाधक बन रहे है, देश की अर्थव्यवस्था ख़राब हो रही है, कानून व्यवस्था ख़राब हो रही है और ऐसे देश प्रगति नहीं कर सकता है, तो उन्होंने इस मार्क्सवादी विचारधारा को पूरी तरह से नकार दिया और परिणाम ये है की आज वो देश संपन्न है और भारत आज भी उसी चक्रवयूह में फंसा हुआ है, क्युकी लोगो को समझना चाहिए किसी का कल्याण तबतक नहीं को सकता जब तक वो खुद प्रयास न करे।
दलितों और मजदूरों की यही समस्या है वो अपने कल्याण के लिए आज भी दुसरो का मुँह देखते है और जिनके [पूँजीपतिओ] सहयोग से उनका कल्याण हो सकता है उनको ही वो अपना दुश्मन मान कर अपना, उनका और देश का भी नुकशान करते है, आखिर आपको रोजगार तो पूंजीपति ही दे सकता है, उसके साथ जुड़िए और मेहनत करके अपना उसका और देश का भला करिये, ये द्वेष मर पालिये की आपकी म्हणत का ९०% वो ले जा रहा है, भलाई इसमें है की आप उसके दिए १०% से एक सम्मान की जिंदगी जी सकते है, आपके बच्चे पढ़ सकते है आपको दो वक्त का अच्छा खाना मिल सकता है, इन मार्क्सवादीओ और माउ के चक्कर में समय जा रहा है और आपको सिवाए कुंठा के कुछ नहीं मिल रहा है।
Comments
Beautiful article with authentic information ,all communities are belong to same background but some have ruled over others ,and they can do it by introducing the new and innovative ideology ,you really said truth that we Indian has a tendency to use the used technology as well as ideology irrespective to its past performance ....