क्या है महिला आत्मनिर्भरता, पुरुष आत्मनिर्भरता और आत्मनिर्भरता ?

महिलाएं भी पुरुषों की तरह आत्मनिर्भर बनें? आओ इसे थोडा समझें!

कोई भी फैक्टरी आत्म-निर्भर नहीं हुआ करती, उसको कच्चा माल तो कहीं और से खरीदना ही पड़ता है, एक नहीं अनेक स्त्रोतों से खरीदना पड़ता है ! क्यूंकि फैक्टरी के अपने resources होते हैं, अपना एक निश्चित क्रिया प्रणाली (processes and mechanism) होती है !

तो जब कहा गया कि "पुरुषों की तरह" आत्मनिर्भर बनें, तो ये सुनिश्चित कर लेना भी बहुत जरूरी है कि क्या पुरुष आत्म-निर्भर होते हैं ? क्या पुरुष अपना कच्चा माल (जरूरतें) खुद बनाते हैं ?
उत्तर है : नहीं !

तो फिर पुरुष आत्मनिर्भर नहीं है - इतना तो निःसन्देह निश्चित हो गया !

अब प्रश्न उठता है कि फिर अकेला पुरुष अपना काम कैसे चलाता है ?
उत्तर है : services से !

और अगर अकेली स्त्री भी रहेगी, तो वो पुरुष के तथाकथित परम्परागत काम कैसे करेगी ?
उत्तर है : services से !

अब ये services क्या बलां है !
ये services कुछ भी हो सकता है, उदाहरण के लिए पिज्जा delivery, पानी टेंकर वाला, डिब्बा-बन्द सब्जी, कूटे हुए मसाले, hotel का खाना, health insurance, social security bond, bodyguards, etc और भी बहुत कुछ ...

तो स्त्री (और परिवार) के अभाव में "पुरुष की आत्मनिर्भरता" और पुरुष (और परिवार) के अभाव में "स्त्री की आत्मनिर्भरता" वास्तव में आत्मनिर्भरता नहीं, बल्कि extreme dependence है (अत्युत आश्रितता), किस पर ? बस यही आपको समझना है, फिर आपको सारा खेल समझ आ जाएगा !

ये extreme dependence किस पर है, उसे समझने के लिए आप ये प्रश्न करिए कि ये services उपलब्ध कौन करवा रहा है ? अब ज़रा गौर करिए अपनी संस्कृति और परम्परागत practices पर :
जहां पानी पिलाना पुण्य का काम था, उस देश में पानी की फैक्टरी कौन लाया ?
जहां स्त्री का दूसरा नाम अन्नपूर्णा था, वहां डिब्बाबन्द processed meals कौन ले आया ?
जहां आदमी लोग नौकरी को हेय दृष्टि से देखते थे, और अंग्रेज अधिकारी खेतों में हाथ जोड़-जोड़कर उनको नौकरी के लिए बहलाकर लाया करते थे, वहां अब लोगों ने अपना production practice छोड़कर "नौकरी" को तवज्जो देनी क्यूँ शुरू कर दी ?
जहां औरतें छत पर अपनी सास के साथ धुप में सब मसाले सुखा कर कूटकर तैयार किया करती थी, वहां ये processed items कौन लाया ?

चलो मैं आपकी थोड़ी सहायता कर देता हूँ , मार्क्स ने अपने आर्टिकल में भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में बताते हुए लिखा था कि ये asiatic model of economy है !

उसने कहा कि यहाँ एक एक गाँव अपने आप में self-sufficient है, "आत्मनिर्भर" है! यहाँ बाहर से कुछ मंगाने की जरूरत ही नहीं पड़ती.
यहाँ तो कोई demand पैदा ही नहीं हो सकती, और फिर ये लोग तो बन्दर और गायों को पूज रहे हैं - इसलिए ऐसी सभ्यता का अंग्रेजों द्वारा विनाश किया जाना एक सुखद विनाश है !
अब आप खुद अपना दिमाग लगा लें, कि demand पैदा करने के लिए कौनसी ताकतें इस asiatic model of economy को उखाड़ कर फेंकना चाह रही हैं, और अपनी service-based economy को स्थापित करना चाह रही हैं ! कहीं आप भी उन ताकतों का मोहरा तो नहीं बनकर रह गए ?
तो मित्रों, व्यक्ति, चाहे औरत हो या आदमी, कभी भी आत्मनिर्भर हो ही नहीं सकता. आत्मनिर्भर होना व्यक्ति का नहीं गाँव या राज्य का गुण है !

नौकरशाही व्यवस्था का विकल्प बताऊँगा तो आपलोगों भी शायद हजम न हो -- गांधी जी के 1909 में लिखे हिन्द-स्वराज के आधार पर धीरे-धीरे उस सनातन पंचायती-राज की पुनर्स्थापना जिसे अंग्रेजों ने 1793 ईस्वी में नष्ट कर डाला | अभी जो पंचायती राज है वह दिखावा है और अफसरों की कठपुतली है | हरेक भारतीय गाँव एक स्वतन्त्र स्वयंप्रभू इकाई था जिसके आंतरिक मामलों में ऊपर के अफसरों का राजस्व वसूली के सिवा लगभग कोई दखल नहीं था, बहुत कम मामले ऊपर पँहुचते थे |

वैशाली के गणतांत्रिक संघ में आठ गणतन्त्र थे जिनमें कुल 7707 राजा थे -- गाँव का मुखिया राजा कहलाता था | वैदिक जनतांत्रिक प्रणाली की हत्या मगध के साम्राज्यवाद ने की, जो वैदिक कीकट और महाभारतकालीन जरासन्ध से लेकर बाद के कालों तक वेदविरोधी साम्राज्यवाद का गढ़ रहा, चाणक्य एक अल्पकालीन अपवाद थे जिन्होंने राष्ट्रीय "त्रि-कलिंग" संघ बनाया किन्तु अशोक की साम्राज्यलिप्सा ने उस राष्ट्रीय संघ को ध्वस्त कर दिया | अंग्रेज उसे झूठमूठ कलिंग का छोटा सा राज्य कहते थे, वे नहीं चाहते थे क़ि भारतीयों को यह जानकारी मिले कि भारत में लोकतन्त्र की अविच्छिन्न परम्परा वैदिक काल से ही रही है | इक्ष्वाकु वंश श्रीकृष्ण के शब्दों में राजर्षियों का वंश था ( - गीता), साम्राज्यवादी चंगेजों और सिकन्दरों का नहीं | कलिंग क्या था इसका प्रमाण है मेगास्थनीस की "ता इण्डिका" | कभी विस्तार से दिखाऊँगा |

ग्राम पंचायत, मण्डल पंचायत (जिला बोर्ड), प्रदेश पंचायत (विधानसभा), और राष्ट्रीय पंचायत (संसद) -- अंतिम फैसले ये लें, अफसर नौकर बनकर रहें, मालिक नहीं, तभी लोकतंत्र कहलायेगा |

राष्ट्रीय पंचायत से ऊपर एक अन्तर्राष्ट्रीय पंचायत (UNO) भी हो जिसे वैश्विक स्तर की समस्याओं से निबटने की अन्तिम शक्ति भी मिले, उसपर किसी का वीटो न चले, तभी वसुधैव कुटुम्बकम् सम्भव हो सकेगा | तभी देशों के बीच झगड़ों का पंचैती से हल निकलेगा, युद्ध नहीं होंगे, संसार में कहीं सेना नहीं रहेगी, केवल जन-मिलिशिया होगी | पासपोर्ट, नागरिकता, नस्लवाद, तस्करी, चुंगी, आदि के झमेले नहीं होंगे | किन्तु विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान अक्षुण्ण रहेगी | यह तभी सम्भव है जब सतयुग जैसी बिना लूट-खसोट वाली व्यवस्था हो | मार्क्स ने भी उस प्राचीन व्यवस्था को "आदिम साम्यवाद" की संज्ञा दी, किन्तु उसकी गलत आसुरी भौतिकवादी परिभाषा दी, सतयुग के श्रेष्ठ नैतिक पक्ष को समझ न पाये |

रूस भी प्राक्-भारोपीय (वैदिक) समुदाय से ही निकला था, वहां भी यह प्रणाली थी, जिसका पुनरुद्धार करने का प्रयास लेनिन ने किया | "पंचायत" को ही रूसी में "सोवियत" कहते हैं | किन्तु कम्युनिस्ट पार्टी के गलत दर्शन ने पुरातन व्यवस्था को खड़ा होने से पहले ही सुला दिया |

ग्राम से लेकर वैश्विक स्तर की पञ्च-स्तरीय पञ्चायती प्रणाली पुरातन वैदिक प्रणाली है जिसके अनेक प्रमाण हैं | ईश्वरीय स्रोत के यामल-तन्त्र ग्रन्थों में ग्राम से विश्व तक के इन्हीं पञ्च चक्रों द्वारां हर स्तर के ज्योतिषीय फलादेश ज्ञात करने के आदेश हैं | वेदों में सभाओं, समितियों और विदथ के वर्णन हैं, तथा सतयुगी साम्यवाद की भावना से सारे निर्णय लेने के आदेश ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त में हैं जिसके आधार पर ही सनातन हिन्दू राष्ट्र का पुनर्निर्माण सम्भव है --

आखिर कब तक विकास के विदेशी मॉडल को अपनाकर भारत का भला करोगे PMO India : Report Card जी?
क्या आपको काँग्रेस की मानसिक गुलामी के मॉडल यानि नेहरू मॉडल को आगे बढ़ाने के लिए देश ने चुना था??
125 करोड़ की आबादी वाले देश मे...जिसकी जनसंख्या घनत्व दुनियाँ के विकसित देशों से कई गुणा ज्यादा है...क्या विदेशी मॉडल उसकी समस्या का हल कर पाएगा??
अभी एक समाचार आ रहा है कि देश के कई जगहों मे अभी पीने का पानी नहीं मिल रहा है, लोग पानी को ताले के अंदर बंद कर रहे हैं??
भारत के लिखित इतिहास के अनुसार भारत में कम से कम 600 ईस्वी में पूरी दुनियाँ की 20% आबादी भारत में रहती आई है!
अगर हमारे मनीषी बड़े-बड़े मंदिर पहाड़ों पर बना सकते थे , जो हजारों सालों से आज भी सुरक्षित हैं तो क्यों उन्होने पक्के घर नहीं बनाए ??

Alaxandor Dow के History of Hindostan के 1779 के अनुसार बंगाल की मात्र 02% जनता शहरों मे रहती थी और इंपेरियल गजेटिेयर ऑफ इंडिया के अनुसार 1900 ईस्वी तक मात्र 05% जनसंख्या शहरी थी!

भारत का शहरीकरण नहीं किया उन्होने तो इसके कुछ तो कारण रहे होंगे ??
लेकिन जब भारत के ग्रामीण मैन्यूफैक्चरिंग उद्योगों को नष्ट करके कैपिटलिस्ट मॉडल अंग्रेजों ने अपनाया तो जनता रोजी-रोटी के लिए शहरों की ओर भागी!
गाँधी ने उस मैन्युफैक्चरिंग और आर्थिक व्यवस्था को लागू करने की कोशिश की...,
परंतु मैकाले-दीक्षित मानसिक गुलाम नेहरू ने प्रधानमंत्री बनते ही उनके विचारों को कूड़ेदान मे डाल दिया!!
#स्वतंत्र तो हुये...लेकिन काले अँग्रेज़ो ने #स्व_का_तंत्र बनाया क्या ??

रोमेश दत्त के हैमिल्टन बूचनन के हवाले से ( 1807ईस्वी ) के अनुसार कई जिलों का डाटा दिया गया है...,
जिसके अनुसार ग्रामीण महिलाओं की...चाहे वो अच्छे घर की हो या किसान की पत्नी हो...दोपहर बाद आराम के क्षणों मे कॉटन के कपड़ों के लिए धागे बनाने (spinning) से प्रतिवर्ष लगभग 03 रुपये की कमाई होती थी और बूचनन के अनुसार उस समय एक रुपये की कीमत दो पाउंड हुआ करती थी...यहाँ तक कि बर्बाद भारत में

1947 ईस्वी में एक रुपये की कीमत एक डॉलर के बराबर होती थी...!
तो मोदी जी आपको हावर्ड और ऑक्सफोर्ड के अर्थशास्त्री नहीं चाहिए...,
कौटिल्य को जानने और समझने वाला अर्थशास्त्री चाहिए...,,
आपको भारत के आर्थिक इतिहास को जानने वाला अर्थशास्त्री चाहिए...,,
और वही सनातन मॉडल ऑफ इकॉनमी चाहिए...,, Production by Masses for masses न कि Mass production by few...चाहे वो वामपंथी मॉडल हो या कैपिटलिस्ट मॉडल , जिससे ग्रामीण जनता को गाँव में ही सुखी जीवन जीने मे आनंद आए...,,
न कि बड़े शहरों मे स्लम एरिया के नरक मे जीने को बाध्य न होने पड़े!!

ये भारत का पुराना मॉडल है। बाजारवाद और पूंजीवाद के युग मे कितना सार्थक है , आप परीक्षण कीजिये।

सनातनी इकनोमिक मॉडल
आपको पता है कि चाहे कैपिटलिज़्म हो या फिर सोसियलिस्म - दोनों का मूलमंत्र एक ही है - मास प्रॉडक्शन, और हमको यही एक मात्र मोडेल समझ मे भी आता है / आपके एक कार्यकर्ता ने सनातन मोडेल ऑफ इकॉनमी के बारे मे रुचि प्रकट की थी . वही आप अपने देश के आर्थिक इतिहास उठाकर देखिये , सनातन मोडेल ऑफ इकॉनमी का अर्थ है - Production By Masses / और यही भारत के गरीबी और बेरोजगारी उन्मूलन का एकमात्र विकल्प भी है / नीचे 1901 मे छपी पुस्तक इकनॉमिक हिस्टोरी ऑफ इंडिया - रोमेश दुत्त कि पुस्तक से कुछ स्नाप शॉट लिए हैं , जिनमे आपको एक मोटे तौर पर उस इकॉनमी का वर्णन है / क्या हम ये व्रत नहीं ले सकते कि हम विश्व को पुनः हस्त निर्मित वस्त्रों से ढँक देंगे ?

1807 का यह डाटा बताता है कि 1807 तक सूट कातने का काम हर घर की हर कास्ट की , स्त्री करती थी / और कब ? दोपहर बाद आराम के छड़ों मे / और उससे प्रति स्त्री को सालाना 3 -7 रुपये की कमाई उस समय होती थी , जो उसके पारिवारिक आय के श्रोत को बढाती थी , और साथ मे उसको घर और समाज मे सम्मान भी दिलवाती थी / प्रत्येक जिले मे उसके क्षेत्रफल के अनुसार 4500 - 6000 तक छोटे छोटे लूम होते थे , जिनको मात्र एक स्त्री और एक पुरुष मिलकर चलाते थे और 30- 60 रुपये प्रतिवर्ष की कमाई करते थे /

जहां तक मुझे पता है आज एक जिले मे इतने ही ग्राम समाज है ,जितने लूमों कि संख्या मैंने लिखा है /

क्या यह असंभव कार्य है कि सनातन के इस मोडेल को पुनर्जीवित किया जा सके / मेरा मानना है कि इस मोडेल का आधुनिकीकरण कर हर घर मे पुनः स्पिननिंग शुरू किया जा सकता है / थोड़ा कष्टसाध्य और मुश्किल अवश्य लगता है , परंतु संभव है .
क्या #मनरेगा , जिसके तहत कच्चा काम किया जा रहा है , और जिसमे आज भयानक लूट मची है , ऐसा बहुतों का मानना है , से इस योजना को जोड़कर घर घर गाव गाव स्पिननिंग नहीं शुरू किया जा सकता ?
शायद कपास की कमी की बात आए , तो हमे भूलना नहीं चाहिए कि अगर अंग्रेज़ इस देश से कच्चा कॉटन और सिल्क इम्पोर्ट कर , मैंचेस्टर से फ़ैक्टरी निर्मित कपड़ो से भारत को भर सकता था , तो हम भी ये काम कर सकते है .
क्या हर गाव समाज मे एक #सोलर_लूम से इन सूतो को वस्त्र निर्माण मे नहीं लगाया जा सकता / MNREGA का शायद इससे अच्छा इश्तेमाल नहीं हो सकता
एक बात और - आप जानते हैं कि भारत की कुल जीडीपी का 18% कृषि से, 18% सरकार से, मात्र 14% कॉर्पोरेट से आता है, बाकी 50% अभी भी स्वरोजगार से आता है / तो इस स्वरोजगार मे बृद्धि कीजिये / निर्माण भी होगा , रोजगार भी बढ़ेगा , नारी का शशक्तीकर्ण भी होगा , और गाव से पलायन भी बंद होगा / गाव के लोग भी शहरों की मलिन बस्तियों मे रहना बंद कर वापस गाव कि ओर लौटेंगे !

मार्क्स ने 1853 ( आर्थिक इतिहास के क्रोनोलॉजी को ध्यान में रखें ) में अपने लेख में भारत सामाजिक पृष्ठिभूमि का वर्णन किया फिर कहा कि -

(१) भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जहाँ प्रोडूसर यानि मैन्युफैक्चरर और कंस्यूमर दोनों ही एक हैं , यानि कंस्यूमर ही मैन्युफैक्चरर है , और मनुफकरेर ही कंस्यूमर है , खुद ही निर्माण करता है और खुद ही इस्तेमाल करता है ,,यानि हर गावं एक स्वतंत्र आर्थिक इकाई है / इसको उसने "एशियाटिक मॉडल ऑफ़ प्रोडक्शन' का नाम दिया / किसी भी तरह के वर्गविशेष द्वारा किसी वर्गविशेष के शोसण का जिक्र नहीं है /
(२) ईस्ट इंडिया कंपनी ने कृषि को नेग्लेक्ट किया और बर्बाद किया
(३) ब्रिटेन जो कि इंडियन फैब्रिक इम्पोर्ट करता था ,,,एक एक्सपोर्टर में तब्दील हुवा /
(५) भारत के फाइन फैब्रिक मुस्लिन के निर्माण का नष्ट होने के कारन १८२४ से १८३७ के बीच ढाका की फैब्रिक मैन्युफैक्चरर आबादी 150,000 से घट कर मात्र 20,000 रह गयी / (अब कोई फैक्ट्री तो होती नहीं थी उस वक़्त , इसलिए सब मैन्युफैक्चरिंग घर घर होती थी) ./
(६) हालांकि सब ठीक है ,,लेकिन ये जनमानस गायों और बंदरों (हनुमान जी ) कि पूजा न जाने कब से करते आ रहे है ,, इसलिए ये semibarbaric सभ्यता है ,,और जो अंग्रेज कर रहे हैं यद्यपि पीड़ादायक है , लेकिन क्रांति अगर लानी है तो इस सभ्यता को नष्ट कर अंग्रेजों को उसमे पाश्चात्य matrialism की नीव रखने का अति उत्तम कार्य कर रहे हैं ??

मार्क्स एक नास्तिक था उसको क्रिश्चियनिटी से उतनी ही दूरी बनाके रखनी चाहिए थी जितनी हिंदूइस्म से / लेकिन क्यों कहा उसने ऐसा , ये तो वही जाने लेकिन आधुनिक मार्क्सवादी वामपंथी और लिबरल्स अभी भी उसी फलसफा पर का अनुसरण कर रहे हैं /

मार्क्स ने गाय और हनुमान कि पूजा करने वालों को सेमी barberic कहा, लेकिन १५०० से १८०० के बीच यूरोपीय christianon ने २०० मिलियन (२० करोड़ हुए न ) मूल निवासियों को अमेरिका में मार दिया ,,वो दैवीय लोग थे ?? इस न मार्क्स ने कुछ बोला कभी न उनके उत्तराधिकारिओं ने / अब दो मूल प्रश्न :

(१) जो लोग ढाका जैसे शहरों से बेरोजगार होने के कारण भागे शहर छोड़कर, वो कहाँ गए ?? और क्यों गए ?? मेरा मानना है वो गावों की और गए , जहाँ उन्हें प्रताणित नहीं किया गया बल्कि शरण दिया लोगों ने /
(२) आप जानते हैं शहर में रहना महंगा है ,/ उस पर अगर उसका पेशा ही नष्ट कर दिया जाय तो वो अपना और अपने परिवार के लिए रोटी कपड़ा और मकान का इंतेज़ाम शहर में नहीं कर सकता / गावं में लोगों ने उनको कहा एक छोटा सा घर बनवा लो , रहो और खेती बाड़ी में मजदूरी करो या मदद करो / क्योंकि गावं में आप एक लुंगी या चड्ढी में भी बसर कर सकते हैं/ श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी का शनिचर सिर्फ चड्ढी और बनियान में ही रहता था प्रधान बनाने के बाद भी /

इस तरह एक स्किल्ड और enterpreuner तबका एक मजदूर वर्ग में तब्दील हो गया / इसी तथ्य में आंबेडकर का उस प्रश्न का भी उत्तर छुपा है , जिसमे उन्होंने कहा कि यद्यपि स्मृतियों में मात्र १२ अछूत जातियों का वर्णन है , लेकिन govt कौंसिल १९३५ ने ४२९ जातियों को अछूत घोषित किया गया है / और आप अनुमान लगाये ७०० प्रतिशत बेरोजगार कितनी बड़ी जनसँख्या होती है /

जो लोग गावं में रहे हैं वो जानते हैं कि उनके दादा परदादा बताते रहे होंगे कि हमने फलने फलने को बसाया / बसाया तो कौन लोग थे, जो उजड़कर दुबारा बसने गए थे ?? वो वही लोग हैं "७०० % बेरोजगार स्किल्ड मन्फक्टुरेर ऑफ़ इंडिया ".

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