भारत में संवैधानिक भेदभाव

हम सभी बचपन से सुनते आये है की भारत में जाती के आधार पर भेदभाव किया जाता है मतलब जो लोग ऊँची जाती के है वो निम्न जाति के लोगो को पास नहीं बैठने देते है उनसे तरह तरह के भेदभाव करते है , या फिर हिन्दू लोग मुस्लिमो को बहुत हेय दृस्टि से देखते है या फिर महिलाओ के प्रति नजरिया बहुत संकुचित है, ऐसे प्रकरण हमे रोज सुनने में आते है, लेकिन कभी किसी ने इन विषयो पर ये अन्वेषण नहीं किया की ये सभी भेदभाव एकदेशीय है, अथवा किसी व्यक्ति विशेष की निजी महत्वाकांक्षा का परिणाम है, वास्तव में इसको हिन्दू अथवा हिन्दू धर्म या पुरुष प्रतिनिधित्व से जोड़कर देखना बिलकुल वैसे ही जैसे ये मान लेना की हर सांप किंग कोबरा की तरह जहरीला होता है।

चलिए एकबार को हम ये भी मान लेते है की की किसी काल हो सकता है हुयी हो तो उसके कुछ तात्कालिक कारण जरूर रहे होंगे, क्युकी अगर ऐसा नहीं होता तो जो वर्ग स्वयं को इतना पीड़ित या शोषित कहता है उसकी जनसंख्या इतनी नहीं हो सकती थी क्युकी उसके अनुसार उसने कभी भी प्रतिकार नहीं किया सिर्फ कष्ट ही सहन किये है।

वास्तव में हमारे समाज में जातिवाद के आधार पर ज़हर घोलने के सबसे ज्यादा काम ब्रिटिश कालीन भारतीय लेखकों ने किया जिन्होंने एकदेशीय समस्या देखकर उसपर ऐसे लेख लिखे जैसे वो हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हो और इसको पुरे समाज की धर्म सम्मत मान्यता प्राप्त हो, जबकि सामाजिक भेदभाव होता तो भगवान श्री राम शबरी के बेर न खाते और न ही निषाद को गले लगाते, अगर सती प्रथा होती तो दशरथ की तीनो रानिया भी सती हो जाती, जबकि ऐसा नहीं हुआ।

ये तो बात हो गयी उन छद्म और क्षेत्रीय समस्याओ की जिनको आधार बनाकर लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी सम्पूर्ण प्रभुत्तसम्पन्न भारत देश में संवैधानिक भेदभाव किया जा रहा है।

अभी हाल ही मतलब दिसंबर २०१९ से भारत में नागरिकता संशोधन कानून आने पर विरोध शुरू हो गया, इसे मुश्लिम विरोधी बता कर संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर खतरा बताया जा रहा है, मुस्लिम समुदाय से लेकर हिन्दू और न जाने कितने तथाकथिक बुद्धिजीवी वर्ग इसे फांसीवादी कानून बता रहा है, इसे द्वेषपूर्ण भेदभाव पूर्ण बता रहा है और इसके विरोध में हिंसक प्रदर्शन भी हो रहे है।

वास्तव में ये तो तीन पडोशी इस्लामिक देशो से आये गैर मुस्लिम शर्णार्थीओ का मामला है इसमें भारतीय मुसलमान को क्या दिक्कत है, और क्या दिक्कत है एप्पल, गूगल और अन्य बहुराष्ट्रीय कम्पनीओ में काम करने वाले लोगो को, सोचिओ क्या ये लोग अपनी संस्था में किसी गैर कर्मचारी को घुसने देंगे क्या अपने सर्वर रूम में किसी भी कर्मचारी को जाने की अनुमति देंगे, शायद बिलकुल नहीं, क्युकी ये उनकी कम्पनी के सुरक्षा का मामला है, लेकिन हम अपने देश की सुरक्षा का नियम बनाये तो गलत कैसे है।

खैर जाने दीजियेगा, हम बात करते है भारत में ही भारत के नागरिको के बीच भेदभाव करने वाले संवैधानिक नियमो की जो वास्तव में भारतीय संविधान के समानता के अधिकार, विधि के समक्ष सामान है और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का सीधा सीधा उलंघन ही है और आजतक इसके विरोध में कभी भी किसी ने हिंसक प्रदर्शन नहीं किया न ही देश दुनिआ के बुद्दिजीवी कभी कुछ बोले और ये कानून है।

१- अनुसूचित जाती एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम इसमें सिर्फ शिकायत मात्र से गिरफ्तारी का प्रावधान है मतलब इसमें गैर  अनुसूचित जाती एवं अनुसूचित जनजाति के सारे मौलिक अधिकार समाप्त हो जाते है और वह एक निरीह प्राणी मात्र बनकर रह जाता है जिसमे उसे ही अपने बेक़सूर होने का प्रमाण देना होगा, और बेक़सूर होने पर भी अनुसूचित जाती एवं अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति पर कोई जुरमाना या दंडन नहीं होगा क्यों ? जबकि आर्टिकल १४ कहता है विधि के समक्ष समानता तो बताये इसमें सामान्य व्यक्ति के साथ क्या हो रहा है, आर्टिकल १५ कहता है धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्‍म स्‍थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध जबकि इसमें वह सिर्फ गैर अनुसूचित जाती या जनजाति का है इसलिए उसे तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया है, आर्टिकल २० कहता है अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षणमतलब सामान्य व्यक्ति को कोई संरक्षण नहीं है दोष स्वतः सिद्ध है अब वो प्रामाणिक करे की वो दोषी नहीं है, और सबसे उत्तम आर्टिकल २१ प्राण और दैहिक स्‍वतंत्रता का संरक्षण अब बताये इसमें कहा रह गयी दैहिक स्वतंत्रता जब सिर्फ शिकायत पर बिना जाँच पड़ताल के गिरफ्तार कर दिया गया।

अगर आज लोकतान्त्रिक देश में संविधान के होते हुए इतना भेदभाव स्वयं राज्य और केंद्र सरकार कर रही है तो सामान्य वर्ग स्वयं को कितना निरीह और असहाय पायेगा, ये में उन सामान्य प्राणी की बात कर रहा हूँ जिनका कोई राजनैतिक, आधिकारिक या व्यावसायिक वर्चस्व नहीं है, जिनमे हम जैसे ९ बजे से ६ बजे तक प्राइवेट कम्पनी के काम करके अपना एवं अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा है।

२- दूसरा नियम जाती, धर्म और लिंग के आधार पर शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में कम अंको के साथ प्रवेश एवं चयन देकर देश की गुणवत्ता में कमी लाना, सोचिए जब आर्टिकल १५ कहता है की धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्‍म स्‍थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध फिर एक सामान्य वर्ग के हिन्दू पुरुष के साथ इसी आधार पर विभेद करके उसके लिए फीस और अंको के मानक अलग क्यों है? क्यों उसके लिए उच्च मानक बना कर आर्टिकल १६ में वर्णित लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता से उसे दूर किया जा रहा है।

आज लोकतान्त्रिक देश में संवैधानिक भेदभाव सरकार की तरफ से किया जा रहा है, जब सामान्य वर्ग के लिए मानक और जीने की दशाये भिन्न होंगी तो वो भी उस स्थान का चयन करेगा जहाँ उसके जैसे ही लोग हो अर्थात समाज वैमन्सयता और वर्ग विभेद बढ़ेगा ही कम नहीं होगा, क्युकी बातचीत में हम सब उल्ट सुलट सब बोलते है, लेकिन अगर अनुसूचित जाती या जनजाति के व्यक्ति ने शिकायत कर दी तो खत्म कॅरिअर, और सामान्य वर्ग को चाहिए ९०% और इन वर्ग को चाहिए ६०%, अब आप सोच लो की ९०% लाने की मेहनत अलग है और ६०% की अलग है, और फिर मेहनत करने के लिए स्वस्थ पर्तिस्पर्धा का होना भी जरुरी है जो की आप किसी अपने जैसे से ही कर सकते है।

मूल परिणाम ये है की सामान्य वर्ग अपने में ही सिमटे रहेगा और बाकि वर्ग अपने में, दोनों के अपने अहम् है, जैसे अमिताभ बच्चन कहते है हम जाती नहीं मानते इसलिए श्रीवास्तव की जगह बच्चन लगाते है और एक वो लोग है जो आईएएस टॉपर टीना ढाबी  और महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविद में भी अपनी दलित जाती देख लेते है।  

Comments