भारतीय राजनीति में भक्ति काल
जैसा की हम सब जानते है वर्तमान में कुछ शब्द बहुत ज्यादा प्रचलन में आये है, जैसे भक्त, मोदी भक्त, अंधभक्त इत्यादि इत्यादि, वास्तव में अगर आपको ये नजर आ रहे है तो बहुत बढ़िया और अगर अभीतक नजर नहीं आये है तो जल्दी ही आ जायेगे क्युकी ये शब्द नए नहीं है, वल्कि 2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जी के भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके समर्थको के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला वहुप्रचलित शब्द है, अब आपके मन में ये प्रश्न उठना उतना ही जरुरी है है जैसे बोर्ड की परीक्षा पास होने के बाद मिठाई का बांटा जाना की आखिर भक्त शब्द ही क्यों इस्तेमाल किया गया, चमचा, गुलाम जैसे शब्द क्यों नहीं प्रयुक्त किये गए, तो आईये इसपर थोड़ा प्रकाश डालने के लिए आपको 2014 के चुनाव के समय में लिए चलते है।
क्या था 2014 के चुनाव में विशेष जो हम नहीं देख पाए ?
२०१४ की बात करने से पहले हमे मोदी जी के व्यक्तित्व को जान लेना बहुत जरुरी है, और उनके विपक्ष की मानसिकता हो, मोदी जी जितने भी समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे बेदाग रहे, कोई गवन घोटाला नहीं, कोई संपत्ति का अर्जन नहीं, माने तो एक संत की तरह रहे जिनका उद्देश्य अपने राज्य के प्रत्येक नागरिक को शिक्षित, सुरक्षित और समृद्ध रखना था, अब ऐसे व्यक्तित्व के समर्थक होना हर उस व्यक्ति के लिए गर्व की बात होगी जो समृध्द, सुरक्षित और शिक्षित राष्ट्र चाहता है, और यही कारण है की 2014 के चुनाव के समय हर वर्ग के लोग मोदी की तरफ आस लगाए बैठे थे की आयेगे तभी राजनीती और राष्ट्र की पुनर्प्राणप्रतिष्ठा होगी, और ज्यादातर विपक्षी लोग और राजीनीति के जानकार ये समझ नहीं पाए की देश की जनता को आखिर हो क्या गया है, पुरे देश के लोग मोदी की शक्ल पर वोट दे रहे थे उनको मतलब ही नहीं था की कौन खड़ा है उनके क्षेत्र से, यहाँ तक की अमेठी और रायबरेली जैसी सीटों पर मार्जिन से जीते है, समाजवादी पार्टी के सिर्फ परिवार के लोग जीते है, बसपा के लोगो की जमानत जप्त आप के लोगो की जमानत जप्त ये हाल था।
नेताओ के अनर्गल बयान
मोदी जी के एक छवि बहुत साफ और बेदाग थी, दूसरे उनके राज्य में लॉ एंड ऑर्डर की समस्या नहीं थी, पुरे एक साल चुनाव प्रचार में लगे होने के बाद भी राज्य का सिस्टम इतना मजबूत था की कोई दिक्क्त नहीं हुयी, जिसे पूरा देश देख रहा था, बाबजूद इसके एक नेता कहते है की मोदी को वोट देने वालो को समंदर में डूब मरणा चाइये (फारुख अब्दुल्ला), एक नेत्री कहती है की मोदी मौत का सौदागर है (सोनिआ गाँधी), और भी न जाने कैसे कैसे आरोप लगे, लेकिन मोदी ने किसी को पलट कर उत्तर नहीं दिया, २००२ में जो दंगे सावरमती एक्सप्रेस में आग लगने के बाद हुए उसके लिए मोदी जी को सबने दोषी ठहराया लेकिन सुप्रीम कोर्ट से उनको निर्दोष साबित किया गया और गुजरात की तत्कालीन राजयपाल कमला बेनीवाल ने हद ही कर दी, लेकिन फिर भी मोदी ने पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुए कभी उनपर आरोप नहीं लगाया जैसा की आज ममता बनर्जी लगा देती है, नेताओ के बकवास पूर्ण बयानों का मोदी ने कभी उत्तर नहीं दिया, जनता को ये भी दिखा, और जिओ के आने से इंटरनेट पर प्रचार और प्रसार भी बढ़ा जिससे लोगो को मोदी और अन्य नेताओ के व्यक्तिगत व्यक्तित्व का आंकलन करने में बहुत आसानी हुयी, और जनता ने मोदी जी को चुना।
भारतीय राजनीती में भक्तिकाल का उदय
हमारा महत्वपूर्ण प्रश्न यही था की क्यों मोदी समर्थको को भक्त, अंधभक्त, मोदीभक्त की संज्ञा दी जाने लगी, बात कुछ ऐसी रही की जब मोदी के बारे में लोगो ने जाना और समझ में आया तो उनको बहुत आश्चर्य हुआ की राजनीती में और मुख्यमंत्री रहने के बाद भी कोई ख़ास संपत्ति नहीं, यहाँ तो प्रधान जी भी ४ तल्ले का मकान और गाड़िया खड़ी कर लेते है, ये कैसे इतने बेदाग रह गए, तो लोगो के अंदर उनको और जानने की उत्शुकता हुयी और इंटरनेट मुफ्त या सस्ता होने के कारण सब सामग्री जल्दी ही मिलने लगी, तो जो भी जुड़ा वो भावनाओ के साथ जुड़ा, अन्य नेताओ की लूट परम्परा से दुखी होकर जुड़ा जिसे मोदी से अलग कर पाना सम्भव नहीं था, अब विपक्ष के बौद्धिक प्रकोष्ठ ने दिमाग लगाया की अगर मोदी समर्थको के अहम् यनि की स्वाभिमान को चोट पहुचायी जाय तो शायद ये छोड़ दे मोदी को और हमारा वोट बैंक तो सॉलिड है ही तो हम जीत जायेगे और मोदी गए, तो उन्होंने भक्त शब्द को मार्किट में उतारा, हम और आप किसी के भी कितने ही समर्थक या समर्पित क्यों न हो ईश्वर के अलाबा किसी और के भक्त बनना स्वीकार नहीं करेंगे, यही विपक्ष ने भी सोचा लेकिन वो सफल नहीं हुए।
भक्त शब्द का जादू क्यों नहीं चल पाया
इंटनेट की सर्वसुलभता के कारण जैसे ही भक्त शब्द का प्रादुर्भाव हुआ वैसे ही समर्थको ने उसको भाँप लिया की ये शब्द उनको स्वाभिमान को ठेस पहुचाने के लिए बहुत ही मनोवैज्ञानिक तरीके से गठित किया गया है और इसे इग्नोर यानि उपेक्षित करने में ही भलाई है, क्युकी कहने वाले का व्यक्तिव भी मायने रखता है, जैसे मुझे एकबार एक लड़के ने बोला की असल बाप के हो तो यही खड़े रहना तो मेने पलट कर बोला की में तो खड़ा रहुगा पर क्या तुम खड़ा रह सकेगा मेरे साथ तो वो भाग गया, ऐसे ही जब भक्त शब्द आया तो सबसे पहले ये खोजा गया की इसके फैलाने वाले कौन लोग है, मतलब भवनाओ से भरे हुए निस्चल,निष्कपट निष्काम लोग या फिर छल कपट और राजनीती से प्रेरित लोग है, तो खोजबीन से पता चला की ये कॉग्रेस आपिये सपीए, बापिये जैसे लोगो की चाल है और मोदी समर्थको ने इस शब्द को उपेक्षित किया।
और भी नीचे गिर गया विपक्ष
जब भक्त शब्द कोई ख़ास कमाल नहीं दिखा पाया यानि की मोदी समर्थको को नहीं डिगा पाया तो उसको थोड़ा और स्पस्ट किया और लाये मोदी भक्त, लेकिन तब तक जनता विपक्ष का ड्रामा जान गयी थी तो इसको भी उपेक्षित किया, जब इससे बात नहीं बनी तो लाये अंधभक्त लेकिन जब शब्द द्वेष , घृणा और राजनीती से प्रेरित होते है तो वो अपनी गरिमा खो देते है और साथ ही इन शब्दों को विकसित करने वाले लोग भी अपनी गरिमा खो देते है, जनता की नजरो से गिर जाते है, और यही हो रहा है।
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