आपको मेरी कविता पुस्तक चाय का प्याला क्यों पढ़नी चाहिए?
आज के समय एक भागदौड़ भरी जिंदगी में हम न तो प्रकृति की सुन्दरता का आनंद ले पाते है, न रिश्तो की संवेदनशीलता समझ पाते है और न ही पैसे कमाने की होड़ में खुद को रोक पाते है, और अगर हम ऐसा करने लगते है तो जीवन में एक अकर्मण्यता आने लगती है जिसे कहते है सब चल तो रहा है और धीरे धीरे हम पिछड़ने लगते है और फिर हमारे अपने ही हमारे अस्तित्व को नकारना शुरू कर देते है, ये पीड़ा पहले वाली समस्या से भी बड़ी है, अम्ब्रीश की ये कविताये आपको एक संतुलित जीवन जीने की कला सिखाएगी जिसमे आप व्यक्तिगत जीवन एवं आत्मोन्नति के प्रयासों को एकसाथ ईमानदारी से लेकर चल सके और न किसी को उपेक्षित करें और न ही किसी के द्वारा उपेक्षित हो। कविता की किताब यहाँ पर उपलब्ध है
थोड़ा और प्रकाश डालना चाहुगा की, यहाँ पर चाय का प्याला सिर्फ एक अर्थ या भाव को व्यक्त नहीं करता है, कभी ये भौतिक उन्नति का परिचायक है, कभी आत्मिक उन्नति का, कभी रिश्तो को सहेजने वाली विधा है तो कभी जीवन में निष्कलंक बने रहने की सादगी है, ऐसे ऐसे अर्थो में चाय का प्याला प्रयुक्त हुआ है की आपको भी लगेगा की हर जगह एक चाय का प्याला आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।
अब थोड़े वर्तमान परिवेश में प्रवेश करते है, जैसे की भौतिक सुखो का होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना आपके द्वारा प्रसन्नचित होकर उन भौतिक सुखो का आनंद लेना, लेकिन कई बार हम भौतिको सुखो में इतने आत्ममुग्ध हो जाते है की प्रकृति, पर्यावरण, वातावरण, रिश्ते और आत्मिक उन्नति की तरफ ध्यान नहीं देते, ये भी नहीं सोच पाते है की एक दिन सब छोड़कर जाना पड़ेगा और उस समय हमारे अपने हमारा साथ भी देंगे या नहीं, क्युकी भौतिकता के सुख में हमने उनको तो नकार दिया है।
दूसरी तरफ दिक्क्त ये है की अगर अपनों से सिर्फ प्रेम करो और भौतिक सुखो के साधन न इकठ्टे करो तो भी अपने अपने होकर भी अपने नहीं होते है या नहीं होंगे, तो इस दुविधा से कैसे निकलना है या फिर इन परिस्थिओं में कैसे सामजस्य बिठा कर अपना और अपनों के हित का साधन भी किया जाय, यही सब कुछ इसमें कविताओ के माध्यम से बताया गया है।
वैसे तो चाय का प्याला पूरी तरह से वास्तविक चाय के प्याले से अलग है, फिर भी चाय की विशिष्टता को मै नकार नहीं सकता हूँ, ये उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी पहले थी, क्युकी चाय से हम भारतीओं का परिचय हुये हुए बहुत समय बीत गया और इसका अब पूरी तरह से भारतीयकरण हो भी गया है, जिन्होंने चाय का अविष्कार किया होगा वो सोच ही सकते थे की इसमें दूध, इलायची, अदरक, काली मिर्च भी डाली जा सकती है तो इस तरह से मेरे समय में ही चाय एक अतिविशिष्ट पेय बन गया था जो आज भी है।
एक समय था जिसे हम २०वी सदी कह सकते है उस समय स्वागत सत्कार का एकमात्र माध्यम चाय ही हुआ करती थी, (अब तो ना जाने कितने पेय दृव्य आ चुके है जो आलसियों के लिए अमृत समान है लेकिन चाय आलस्य भगा कर जगा देती है ) और उस चाय पीना और पिलाना एक गर्व की बात हुआ करती थी, ये जितनी विशिष्ट थी उतनी ही सहज और समर्पित भी थी जैसे किसी ने अगर चाय नहीं पिलाई तो कहते थे उन्होंने चाय के लिए भी नहीं पूछा और विशिष्ट तो इतनी थी की हर प्रकार के संवेधनशील वार्तालाप में चाय ही साथ देती थी, विद्यार्थीओ का, अधिकारिओं का, मेहमानो का सभी के लिए चाय ही विशेष महत्त्व रखती थी और आज भी है। तो हम उम्मीद करते है बहुत से अर्थो को समाहित किये हुए मेरी चाय का प्याला को आपके हाथो का इंतज़ार है।
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